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________________ कल्प श्रीकल्प मञ्जरी ॥३०५॥ विशारदान-पञ्चमहाव्रतानि ५, नेन्द्रियनिग्रहाः १०, चत्वारः क्रोधादिविवेकाः १४, अन्तरात्मशुद्धिसंजातं भावसत्यम्, प्रत्युपेक्षणादिक्रियायामुपयुक्तत्वं करणसत्यम्, योगानां मनआदीनां यथार्थत्वं योगसत्यम, इति भावकरणयोगसत्यानि त्रीणि १७, क्षमैका १८, विरागितका १९, अकुशलानां मनोवाकायानां निरोधात्रयः २२, ज्ञानदर्शनचारित्रसम्पन्नतास्तिस्रः २५, शीतादिवेदनासहिष्णुत्वमेकम् २६, मारणान्तिकोपसर्गसहनशीलता चैका २७ इति सङ्कलनेन सप्तविंशतिसाधुगुणाः,तत्र विशारदान-दक्षान,तथा-अष्टादशसहस्रशीलागरथधारकान्-अष्टादशसहस्रसंख्यकानि यानि शीलाङ्गानि, तान्येव रथस्तस्य धारकान्, एवंविधान साधून नमस्यामीति । एष उपर्युक्तः पश्चनमस्कारः अईसिद्धा-चार्यो-पाध्याय-साधून पति कृतो नमस्कारो हि जगजीवजीवनसार:-जगति ये जीवाः नारकतिर्यग्देवमनुष्याः, तेषां जीवनस्य जीवितस्य सारोऽस्ति, तथा-सर्वपापविनाशनकारः-सर्वाणि च तानि पापानि-सर्वपापानिज्ञानावरणीयादीन्यष्ट कर्माणि तेषां विनाशनकारः विनाशकः, सर्वमङ्गलागारं-सर्वाणि च मार महावीरस्य नन्दनामकः पञ्चविंशतिना तमो भवः। प्रकार हैं-पाँच महाव्रत ५, पाँच इन्द्रियों का निग्रह १०, क्रोध आदि चार कषायों का त्याग १४, अन्तरात्मा की शुद्धि से उत्पन्न हुआ भावसत्य १५, प्रतिलेखन, आदि क्रियाओं में सावधानता रूप करणसत्य १६, मन आदि योगोंकी यथार्थता रूप योगसत्य १७, क्षमा १८, वैराग्य १५, अशुभ मन वचन कायका निरोध २२, ज्ञानसम्पन्नता, दर्शनसम्पन्नता, चारित्रसम्पन्नता २५, शीत आदि की वेदना की सहनशीलता २६, और मारणान्तिक उपसर्गों की सहनशीलता २७, ये सब मिल कर साधु के २७ गुण होते हैं। __पूर्वोक्त यह पंचनमस्कार अर्थात् अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधुओं को किया हुआ नमस्कार, जगत् में जो नारक, तिर्यच, मनुष्य और देव हैं उन सब के जीवन का सार है अर्थात् समस्त जीवों का उद्धारक है, पापों अर्थात् ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों का विनाश करनेवाला है और द्रव्य-भाव रूप सब मंगलों का अगार-गृह है। (२४) आज से मैं सब प्रकार के सावधयोग को जीवन भरके लिए मन वचन काय से पुनः ॥३०५॥ પૂર્વોક્ત આ પાંચ નમસ્કાર એટલે કે અહંન્ત, સિદ્ધ, આચાર્ય, ઉપાધ્યાય, અને સાધુઓને કરાયેલાં નમસ્કાર જગતમાં જે નારક, તિયચ, મનુષ્ય અને દેવ છે તે બધાંના જીવનનો સાર છે. એટલે કે સમસ્ત જીવોના ઉદ્ધારક છે, પાપો એટલે કે જ્ઞાનાવરણ આદિ આઠ કર્મોને વિનાશ કરનારા છે અને દ્રવ્ય-ભાવ રૂપ સર્વ મંગળના અગાર (ગ્રહ) છે. દે Jain Education Interdonal For Private & Personal US
SR No.600023
Book TitleKalpasutram Part_1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherSthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti Rajkot
Publication Year1958
Total Pages594
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationManuscript & agam_kalpsutra
File Size21 MB
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