________________
! एव सन्ति १५ । रूपयौवनधनकनकप्रियजनसमागमनानि पवनक्षुब्धसिन्धुतरङ्गा इव चञ्चलानि, विद्युद्वच्चपलानि,
कुशाग्रस्थितावश्यायविन्दव इव अस्थिराणि च सन्ति १६। जन्मजरामरणनानाविधाधिव्याधिग्रस्तानां माणिनां तापकलापगिरिभेदनकुलिशम् अहंद्राषितधर्म विना अस्मिन् अपारे असारे संसारे अन्यत् किमपि नालं त्राणाय वा शरणाय वा भवति १७। निमित्तमासाद्य स्वजनाः परजना भवन्ति परजनाश्च स्वजना भवन्ति, नात्र जीवस्य कोऽपि स्वजनो वा परजनो वा, यद्येवं तदा को विवेकी तत्र मनागपि मनः संयोजयेत् १८ । जीव
श्रीकल्प
कल्प
मुत्र
मञ्जरी
॥२८४॥
टीका
(१६) रूप, यौवन, धन, कनक और प्रियजनों के समागम आधी से क्षुब्ध हुए सागर की लहरों के समान चंचल हैं, बिजली की चमक के समान चपल हैं और कुश की नोंक पर स्थित ओस के बुंदों की भांति अस्थिर हैं, इसलिये कौन विवेकी इनमें ललचायेगा? अर्थात् कोई नहीं।
(१७) जन्म, जरा, मरण तथा विविध प्रकार की आधियाँ एवं व्याधियों से ग्रस्त-संसारी जीवों के संताप-समूह रूपी शैल (पर्वत) को भेदने के लिए वज्र के सदृश अद्भाषित धर्मके अतिरिक्त इस असार संसार में और कोई त्राण करने वाला या शरण देने वाला नहीं है।
(१८) निमित्त मिलने पर स्वजन परजन बन जाते हैं और पर जन भी स्वजन बन जाते हैं। इस संसार में न कोई अपना है, न पराया है। और जब यह स्थिति है तो कौन विवेकवान् उनमें थोड़ा भी मन लगायेगा ।
म महावीरस्य मनन्दनामकः विशतितमो
भवः।
(૧૬) રૂપ-યૌવન-ધન-કનક અને સગાંવહાલાંને સંબંધ, સાગરના મોજા સમાન ચંચળ છે. વિજળીના. ચમકારા જે ચપળ છે, અને ઝાંડના પાંદડા પર પડેલાં ઝાકળના બિંદુ સમાન અસ્થિર છે. માટે કોણ વિવેકીજન આમાં લલચાશે ? એટલે કેઈ નહિ.
(૧૭) જન્મ-જરા-મરણ–આધિ-વ્યાધિથી ઘેરાયેલ સંસારી જીને, અહં'તભાષિત ધર્મ સિવાય કઈ શરણભૂત નથી.
' (૧૮) ઋણાનુબંધને લીધે સૌ કોઈ આવી મળે છે. પુણ્યને શુભયોગ થતાં પરાયા પણ સ્વજન અને
તેણે મિત્ર બની જાય છે, ને પાપને ઉદય થતાં સનેહીઓ પણ દુશ્મન થઈ પડે છે. માટે આ જીવને કેઈપણ સ્વજન dain Education NFSonal प२ नथी. न्यारे भावी स्थिति छ त्यारे । विही मामा भन us,
नहि.
||२८४||
Saiww.jainelibrary.org.