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मामा
श्रीकल्प
कल्प
सूत्रे
मञ्जरी
॥१९॥
टोका
महावीरस्य मरोचिनमका
तृतीयो
भवः।
उत्तरदिशि हिमवान् उषदिक्षु चोपाधिभेदेन समुद्रा अन्ताः सीमानस्तेषु स्वामित्वेन भवश्चातुरन्तः, चक्रेण-रत्नभूतपहरणविशेषेण वर्तितुं शीलं यस्य स चक्रवर्ती, चातुरन्तश्च स चक्रवर्ती-चातुरन्तचक्रवर्ती, धर्मेणव्यायेन वरः श्रेष्ठ इतरराजापेक्षयेति धर्मवरः, धर्मः पाणातिपातादिनिवृत्तिदानशीलादिरूपः- "धर्माः पुण्ययमन्यायस्वभावाऽऽचारसोमपाः" इत्यमरः; स चासौ चातुरन्तचक्रवर्ती चेति । यद्वा-चातुरन्तं च तच्चक्रं चेति चातुरन्तचक्रं, वरं च तचातुरन्तचक्रं वरचातुरन्तचक्र, धर्मों वरचातुरन्तचक्रमिव-धर्मवरचातुरन्तचक्रं, तेन वर्तितुं शीलमस्येति तथाभूत ऋषभजिनो मम पितामहोऽस्ति १। तथा चक्ररत्नप्रधानः-चक्ररत्नं प्रधानं श्रे' प्रहरणेषु यस्य सः-चक्ररत्नरूपश्रेष्ठपहरणधारीत्यर्थः, एकच्छत्राम्-एकमेव छत्रं नृपलक्ष्म यस्यां सा तथा ताम्-एकराजाधीनां, ससागरां-सागरपर्यन्तां वसुधां शासत क्षन्, नवनिधि
चक्रवर्ती पद से छह खण्ड के अधिपति की सदशता सूचित की है। अर्थात् भगवान् को चक्रवर्ती के समान प्रकट किया है। उत्तर दिशा में हिमवान् पर्वत और शेषदिशाओं में उपाधिभेद से तीन समुद्र इस प्रकार चारों सीमाओं का जो स्वामी हो और जो चक्ररत्नरूप आयुध से वर्तता हो, वह चातुरन्तचक्रवर्ती (षटूखंड का स्वामी) कहलाता है । वह अन्य राजाओं की अपेक्षा धर्म अर्थात् न्याय में उत्कृष्ट होता है, अतः वह भी 'धर्मवर' कहा जा सकता है । प्राणातिपात आदि का त्याग और दान शील आदि को धर्म कहते हैं।
इस तरह जो धर्मवर हो और चातुरन्तचक्रवर्ती हो, वह धर्मवरचातुरन्तचक्रवर्ती है ।
अथवा-वर ( श्रेष्ठ) चातुरन्तरूप चक्र को वरचातुरन्तचक्र कहते हैं । धर्म वरचातुरन्तचक्र के समान है । उससे जो वर्ताव करता है, वह धर्मवरचातुरन्तचक्रवर्ती कहलाता है।
मरीचि आगे कहता है जो चक्ररूप श्रेष्ठ शस्त्र के धारक हैं, जो एकच्छत्र और समुद्र पर्यन्त पृथ्वी पर शासन करते हैं, जिनका भंडार नसर्प आदि नौ निधियों से समृद्ध है और जो समस्त प्रजा को परिજે “ધર્મ' અનંત અપેક્ષાવાદી અને નયવાદી હોય તેમ જ સઘળા ધર્મ તેમાં અપેક્ષાપૂર્વક સમાઈ જતાં હોય તે
સ્વાદુવાદપણુ” ને “ધમ ' કહેવામાં આવે છે. અને ભગવાને આ અપેક્ષાયુક્ત ધર્મની ઘોષણા કરી છે, માટે તેમને ધમરચાતુરન્તચક્રવત્તી' કહ્યાં છે.
છખંડ પૃથ્વી પર જેનું શાસન ચાલતું હોય, જેના ખજાનામાં નવ નિધિ હાજર હય, જેને સર્વ દુશ્મ
मता
॥१९॥
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