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________________ प्रथम्न ३३३ सुखके साथ दुःख लगा हुआ है। और विषयभोग विषके समान परिपाकमें दुख देने वाले हैं । यदि संसार के विषयों में कुछ सारता होती, तो श्री आदिनाथ तीर्थंकर आदि महापुरुष उन्हें क्यों छोड़ देते मो के लिये क्यों प्रयत्न करते ? कुटुम्बीजनोंकी संगति यदि नित्य होती अर्थात् हमेशा बनी रहती, तो भरत आदि महाराज तपस्या करनेके लिये कैसे तत्पर होते । ५६-५८ । इसप्रकार संसारकी नित्यता तथा असारता जानकर तुझे मोक्षका शाश्वत सुख प्राप्त करनेके लिये ही प्रयत्न करना चाहिये | सन्मार्ग के चरण में रक्त हुए तथा कृत्रिम क्षणस्थायी सुखोंसे विरक्त हुए तुझको मैं नियमा नुसार रोक भी नहीं सकती हूँ कि दीक्षा मत ले । ५६-६०। बल्कि मैं स्वयं ही स्नेहको छोड़कर तपोवन में प्रवेश करती हूं, जो संसाररूपी समुद्र से पार करने के लिये जहाजके समान है । हे वत्स ! इतने समयतक मैं सुखमें लवलीन होकर घर में रहती थी, सो केवल तेरे मोह ही से रहती थी और दूसरा कारण नहीं था । ६१-६२। माताके ऊपर कहे हुए वचन सुनकर प्रद्युम्न कुमार को सन्तोष हुया । फिर उसने अपनी स्त्रियों से कहा, हे स्त्रियों ! मेरे हितकारी वचन सुनो। यह जीव दुःखसे भरे हुए संसार में चिरकाल तक भ्रमण करके किसी प्रकार दैवयोगसे मनुष्यजन्म पाता है । और उसमें भी उच्चकुल में जन्म पाना तो बहुत ही कठिन है | करोड़ों भवोंमें भी नहीं मिलता है। इसके सिवाय सुकुलमें जन्म पाकर भी राज्यका तथा धन वैभवका पाना अतिशय कठिन है । सो संसार में जितनी बातें दुर्लभ थीं, मैंने उन सबको पा ली हैं अर्थात् मनुष्यपर्याय, यदुवंश जैसे श्रेष्ठ कुलमें जन्म, बड़ी भारी राज्यविभूति, विद्या, बल आदि सब कुछ मैं पा चुका हूँ । अब मेरा जो यथार्थ कर्तव्य है, उसके करनेका यत्न करता हूँ । अर्थात् मोसुखकी देनेवाली जिनभगवान की दीक्षा लेता हूँ । सो इस विषय में अब तुम्हें मुझको रोकना नहीं चाहिये । ६३-६८ | यह प्राणी स्त्रियोंके लिये ऐसा कौनसा कार्य है, जो नहीं करता है ? निरन्तर For Private & Personal Use Only Jain Educatio international चरित्र www.jakalibrary.org
SR No.600020
Book TitlePradyumna Charitra
Original Sutra AuthorSomkirtisuriji
AuthorBabu Buddhmalji Patni, Nathuram Premi
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationManuscript & Story
File Size9 MB
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