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प्रथम्न
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कृष्ण, समुद्रविजय, आदि यादव शिवादेवी, देवकी देवी, रुक्मिणी, सत्यभामा आदि रानियां और उग्रसेनादि अन्य सब राजा लोग भी आये । समवसरणको देखकर सबको बड़ा अचरज हुआ । सब लोग तीन प्रदक्षिणा देकर, भावपूर्वक स्तुति करके, नमस्कार करके, और विधिपूर्वक पूजा करके मनुष्यों के कोठे में यथास्थान बैठ गये। राजीमती भी पांचहजार स्त्रियोंके साथ समवसरण में आई और भगवान को नमस्कार करके दीक्षित हो गई। जितनी स्त्रियां यार्यिका हुई थीं, राजीमती उन सबकी महत्तरा अर्थात् स्वामिनी हो गई । २६-३१।
इसके पश्चात् सुनने की इच्छा करनेवाले लोगोंके लिये श्रीवरदत्त गणधर जिनभवानसे बोले, प्रभो ! भव्यरूपी चातकको सन्तुष्ट करनेके लिये धर्मरूपी मेघको प्रगट करो। ये प्राणी अनादिकाल से मिथ्यात्वको तृषा अतिशय पीड़ित हो रहे हैं । तब मेघके स्वरूपको धारण करने वाले जिनेन्द्रदेव भव्यरूपी चातकों के लिये सप्तभंगमयी, अतिशय गम्भीर और मधुर वाणी बोले । उस वाणीमें चारों अनुयोग, बारहों अंग, रत्नत्रय और सातों तत्वों का सार तथा स्वरूप था । ३२-३५ ।
भगवान बोले, संसारके भ्रमणका नष्ट करनेवाला धर्म दो प्रकारका है, एक मुनियोंका और दूसरा गृहस्थों का । जिसमें से दिगम्बर मुनियोंका चारित्र तेरह प्रकारका है। पांच महाव्रत, पांच समिति और तीन गुप्ति | इसके सिवाय मुनियोंके अट्ठाईस मूलगुण, हजारों (८४ लाख) उत्तरगुण, और प्रतिदिन करने योग्य छह छह आवश्यक कर्म हैं। मुनि इस प्रकारके निर्मल चारित्रका पालन ara मोतके शाश्वत् सुखको प्राप्त करते हैं । ३६-४०। और गृहस्थोंका चारित्र बारह प्रकारका है । पांच अणुव्रत, तीन गुणवत, और चार शिक्षाव्रत । श्रावकों के यही बारह व्रत कहलाते हैं । भव्यजनों को ये उत्तम श्रावकों के आचार सम्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक् चारित्ररूप रत्नत्रय के सहित निरन्तर पालना चाहिये। मुनियोंके समान गृहस्थों के भी मूलगुण होते हैं । वे ये हैं, मद्य, मांस, मधु, और
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चरित्र
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