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वहां जाकर उसने अपनी मातासे जो बात कही थी, वही एकान्तमें जांबुवतीसे कह दी, वह बोली, तुम्हारे पितासे मेरा विरोध है । फिर मेरे उदरसे पुत्र कैसे हो सकता है ? मेरे तो तू ही पुत्र है। यह सुनकर प्रद्युम्नने अपनी विद्यासे रूप बदल देने आदिका सब विचार कह दिया ।४१-४२। उसे सुनकर जांबुवतीको बहुत सन्तोष हुआ। वह बोली, बेटा ! तू उत्तम है, बुद्धिमान है जैसा तुझे रुचता हो, वैसा कर ।।४३। इसप्रकार स्वीकारताका उत्तर सुनकर प्रद्युम्न प्रसन्न होकर अपने महलको चला गया। वहां जांबुवती उस सुखसमयकी एक चित्तसे प्रतीक्षा करती हुई रहने लगी।४४॥
इसी वीचमें संसारके प्यारे वसन्त ऋतुका आगमन हुआ। श्रामोंके बगीचे मौर गये । उनपर कोयले कुहू कुहू शब्द करने लगीं। संयोगियों के चित्तोंके समान टेसू फूल गये। मानिनी स्त्रियोंका मान भंजन करनेवाली भ्रमरोंकी झंकार सुनायी पड़ने लगी।४५। चैतके महिनेकी सुदी दशीका दिन
आया श्रीकृष्णजी अपनी पूर्व इच्छाके अनुसार सत्यभामासे पानेका निवेदन करके वनक्रीड़ा करनेके लिये गये।४६-४७। सो रैवतक (गिरनार ) पर्वतपर फूलोंका गृह बनाकर वहां पुत्रकी वांछासे तीन दिन तक रहे।४८। उस समय सत्यभामा अतिशय आनन्दित हुयी। तीन दिन बीते जानकर वह भी बनक्रीड़ाके लिये जानेके लिये उद्यत हुयी।४६।
___ यहां प्रद्युम्नकुमारने भी जांबुवतीके घर जाकर उसका रूप बदलनेवाली देवोपनीत मुद्रिका (अंगूठी) दे दी, जिसके प्रभावसे उसने अपना रूप बदलकरके सत्यभामाका अचरज करनेवाला रूप धारण कर लिया । उस रूपको दर्पणमें देखकर और आपको ठीक सत्यभामाकी आकृति जानकर वह बहुत प्रसन्न हुयी। प्रद्युम्नकुमारको भी सन्तोष हुया । वह बोला, हे माता! जिस समय तुम्हारा कार्य सिद्ध हो जावे, उस समय अपना प्रकृतरूप धारण कर लेना ।५०-५३। ऐसा कहकर कुमारने उसे पालकी में बिठाई और थोड़ेसे सेवकों के साथ वनमें भेज दी, जहां कि श्रीकृष्णनारायण पुष्पगृह
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