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दैवयोगसे यह बात छुपी नहीं रही। प्रद्युम्नकुमारको भाईके उत्पन्न होनेकी तथा हार देने आदिकी सब बातें मालूम हो गयी ।२७।।
तब प्रद्युम्नने उत्सवमें मोहित होनेवाली अपनी माताके महलमें जाकर उससे एकान्तमें बड़ी विनयसे निवेदन कियाकि, हे माता ! मेरा भाई कैटभ जो सात भवसे मेरे साथ भ्रमण कर रहा है, इस समय सोलहवें स्वर्गमें देवोंका स्वामी इन्द्र है । और थोड़े ही दिनमें मेरे पिता श्रीकृष्ण महाराजके यहां पुत्र रूपमें अवतार लेगा। यह बात जिनेन्द्रभगवानकी कही हुई है, सो झूठ नहीं हो सकती है। यद्यपि मेरे पिता वह पुत्र सत्यभामा महारानीको देना चाहते हैं ।२८-३१। परन्तु यदि उसी सब गुणों की खानि पुत्रके पानेको तुझे इच्छा हो तो मैं तेरे उदरमें ही उसका अवतरण करा सकता हूं। इसमें कुछ भी संशय नहीं है ।३२। यह सुनकर रु क्मणो बोली, यह तुझसे कैसे होगा ? क्योंकि यह कार्य तेरे अधिकारमें कदापि नहीं है ।३३। प्रद्युम्न, बोला, नहीं मेरे अधिकार में है। जिस दिन सत्यभामाके संयोगका दिन होगा, उसदिन मैं तुझे ही कृत्रिम सत्यभामा बनाकर पिताके समीप भेजदूँगा जिस से सब कार्य सिद्ध हो जावेगा।३४। रुक्मिणी पुत्रके वचनसे संतुष्ट होकर मुस्कराती हुई बोली; बेटा ! अब में अन्य कष्टरूप पुत्रोंको नहीं चाहती हूँ, मुझे तू ही बहुत है। संसार में तेरे समान तू ही है । सूर्यके समान दूसरा कौन हो सकता है ? ।३५-३६। हां यदि तू मेरा पुत्र है, तो जो मैं कहती हूँ सो कर । यह जाम्बुवती रानी मेरी सौत है, तो भी मुझको प्यारी है। इसका तेरे पिताके साथ बड़ा भारी विरोध है । वे इसको नहीं चाहते हैं अतएव तू उस देवका अवतार इसके उदरमें करानेका प्रयत्न कर। उत्तम पुरुषोंकी विभूति पराये उपकार करनेके लिये समर्थ होती है। अतएव जिस तरह हो, उस तरह से इसका दुःख निवारण कर ।३७-३६। “माताके सब वचन मानूंगा और निश्चयसे उन्हींके अनुसार | काम करूंगा" ऐसा कहकर और नमस्कार करके प्रद्युम्न जांबुवतीके महलमें गया।४।
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