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________________ प्रद्युम्न १६८। वह जल्द ही अपने वेषको बदलकर विनयसे मस्तक झुकाये हुये पिताके चरण कमलोंमें पड़ गया है। पिताने भी उसे तत्काल ही अपनी भुजाओंसे उठाकर छातीसे लगा लिया और संयोगसुख में मग्न होकर नेत्र बन्द कर लिये।१०। दोनोंके शरीर अन्तरंगके आनन्दको सूचित करनेवाले चिह्न से चिह्नित हो गये अर्थात् दोनोंके शरीर कंटकित हो गये और उसी प्रकार मिले हये निश्चल हो रहे । उन्हें बहुत देर तक इसी अवस्थामें देखकर नारदजी आनन्दसे पूरित हो हँसते हुए इसप्रकार सन्तोषदायक वचन बोले, हे वीरों ! यहांपर बिना कामके क्यों बैठे हुए हो ? अब द्वारिकाको क्यों नहीं चलते हो ? १.३। नगरीके सारे स्त्री पुरुष उत्सुक हो रहे होंगे, अतएव बड़े भारी उत्सवके साथ अपनी उत्कृष्ट नगरीमें प्रवेश करो।४। नारदजीकी नगर प्रवेशकी बात सुनकर श्रीकृष्णजी एक लम्बी सांस लेकर और दुःखसे गद्गद् होकर बोले, महाराज में सेनासे रहित होगया हूँ, अर्थात् मेरी सारी सेना संग्राममें मारी जा चुकी है। इससमय यह जो मेरा पुत्र मिल गया, सो ही अच्छा हुआ ।५-६। सारी नगरीमें बन्धुओं और सेनाओंसे रहित होकर केवल दो ही जने शेष रह गये हैं । एक में दूसरे, भगवान नेमिनाथ तीर्थङ्कर । अथवा मैं और प्रद्युम्न । अतएव हे मुनिनायक बतलायो, नगर प्रवेशके समय अब मैं क्या शोभा कराऊं और इससमय किसके ऊपर छत्र धारण किया जावेगा अर्थात् जब प्रजा ही नहीं है, सेना ही नहीं है, तब छत्र किसका ? श्रीकृष्णजीके मुहसे इसप्रकार दीनताके वचन सुनकर नारदजी उनका दुःख निवारण करते हुये हँस करके बोले, कुमारने इस संग्राममें किसी एक जोवको भी नहीं मारा है और न हाथी घोड़ों और पैदलोंको किसीको कुछ पीड़ा पहुँचाई है ।७-१०। जो कामकुमार अपने शत्रुओंको भी नहीं मारता है, हे विष्णुमहाराज ! वह अपने पिता की सेनाको कैसे मारेगा ? आप सेना के नष्ट होनेका व्यर्थ दुःख न करें। सेना मरी नहीं है । यह सुनकर नारायणने पूछा, “तो क्या हुआ है ?" नारदजी Jain Edun international For Private & Personal Use Only www.l ibrary.org
SR No.600020
Book TitlePradyumna Charitra
Original Sutra AuthorSomkirtisuriji
AuthorBabu Buddhmalji Patni, Nathuram Premi
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationManuscript & Story
File Size9 MB
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