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क्रोधित, और उग्रवचन बोलनेवाले श्रीकृष्णजीने शत्रुपर लाल लाल दृष्टि डाली। अर्थात् बड़े क्रोधसे
अपने शत्रुकी ओर देखा ।८४। प्रद्युम्नकुमार भी पिताको तैयार देखकर रथसे उतर पड़ा और शीघ्र| तासे साम्हनेकी ओर चला ।५। उन दो हाथियोंके समान दोनों योद्धाओंको मल्लयुद्ध के लिये तैयार
देखकर विमानमें बैठी हुई रुक्मिणी और उदधिकुमारीने नारदजीसे कहा, हे महाराज ! अब आप विलम्ब न करें, जल्द ही इन दोनोंको रोक दें। हे पिता ! इन बाप बेटोंकी लड़ाई से अब हमारी सर्वथा हानि है ।८६-८८। रुक्मिणी और उदधिकुमारीके भेजे हुए नारदजी जल्द ही उन लड़नेको तैयार हुए शूरवीरोंके बीचमें आ खड़े हुए और बोले, हे माधव ! तुमने इससमय अपने पुत्रके ही साथ यह क्या कार्य प्रारभ कर रक्खा है ? यह वही प्रद्युम्नकुमार अपने पितासे हर्षपूर्वक मिलने आया है, जो राजा कालसंवरके घर में वृद्धिको प्राप्त हुआ है, जिसे सोलह लाभ हुए हैं, और जो गुणोंका घर है। यह तो सोलह वर्षके पीछे मिलनेको अाया है, और आपने इससे संग्राम ठान रक्खा है। हे जना. र्दन ! अपने बेटेके साथ संग्राम करना, आपके लिये योग्य नहीं है ।८९-६२। श्रीकृष्णजीको इसप्रकार उलहना देकर नारदजी प्रद्युम्नकुमारसे बोले कि, हे कामकुमार ! और तुम भी अपने पिताके साथ यह क्या कर रहे हो ? ६३अब तुम्हें इन जगत्के पूज्य और स्नेहके गृहस्वरूप पिताके साथ दूसरी सब चेष्टायें छोड़कर जो पुत्रका उत्तम कर्तव्य होता है, वह करना चाहिए ।९४। नारदमुनिके वचन सुनकर श्रीकृष्णजी मल्लोंकी चेष्टाको छोड़कर स्नेहके वश प्रद्युम्न की ओरको मिलने के लिये चले। चलते समय पुत्रके आनेके आनन्दसे और सेनाके नष्ट होनेके शोकसे उनकी गतिमें शीघ्रता और मन्दता दोनों ही दिखलाई देती थी ।९५-६६। समीप पहुँचकर उन्होंने कहा, हे बेटा ! अब जल्द आओ, और मुझे अपनी भुजाओंके गाढ़ आलिंगनका सुख प्रदान करो।।७। पिताके स्नेहसे भरे हुए, कानोंको सुख देनेवाले और रमणीय वचन सुनकर कुमारका चित्त आनन्दसे खिल उठा
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