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प्रद्युम्न
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मच गया। और मेरी दुदुभी तथा तुरही यदि बाजोंके शब्दोंने दशों दिशायें व्याप्त कर डालीं ।४५४६ । उस समय सेनाओं के आगे धूल इतनी उड़ी कि सारी पृथ्वी व्याप्त हो गई। वहां कुछ भी दिखाई नहीं देने लगा । हमारी समझमें वह धूल श्रीकृष्णजीको रोकने के लिये ही उठी थी कि यह तुम्हारा शत्रु नहीं, किन्तु पुत्र है । इसके ऊपर यह निरर्थक क्रोध क्यों करते हो । ४७-४८ । धूलका विस्तार देखकर उसे हाथियोंके मदजलने क्रोधयुक्त हो अपनी वर्षासे जल्द ही निवारण कर दिया अर्थात् धूल बैठा दी । सो मानों मदजलने उसे इस अभिप्राय से बैठा दी कि यह धूल इस सेनाको लड़नेसे रोकने के लिये क्यों उड़ी है ? क्योंकि इसमें प्राणियोंका बध बिलकुल नहीं होगा। यह तो एक प्रकारका विनोद है । इसे नहीं रोकना चाहिये |४६-५०।
इसप्रकार जब श्रीकृष्ण और प्रद्युम्न की महायोद्धाओं से निकट हुई और बलवानोंसे युक्त हुई सेनाठहरी हुई थी, उससमय देव और दैत्य आकाशमें आ कर कौतुक देखने लगे। वे प्रद्युम्न की सेनाको अधिक देखकर भयभीत होकर बोले, हम नहीं जानते है कि, क्या होगा ? इस संग्राममें किसकी विजय होगी ? इसप्रकार कौतुकसंयुक्त हुए वे देव और दैत्य प्रकाशरूपी आंगन में स्थिर हो रहे । ५१-५३।
श्रीप्रद्युम्न कुमार ने भानुकुमारकी छातीपर पैर रखके उसका मर्दन किया, सत्यभामा के सुन्दर वन उपवनों को क्षण भरमें नष्ट भष्ट कर दिये और अपनी माताके अनेक प्रकार के कार्य किये, सो सव जैनधर्म के प्रभाव से किये हैं । अतएव प्राणियों को निरन्तर उसी कल्याणकारी धर्मका ध्यान करना चाहिये |५४ | धर्म से ही सम्पूर्ण मंगल होते हैं, धर्म ही से स्वजन और बंधुओं का संगम होता है, अतएव है। भव्यजनों ! सोम अर्थात् चन्द्रमा के समान निर्मल और मनोहर धर्म का सेवन करो । १०५५ । इति श्री सोमकीर्ति आचार्यकृत प्रद्युम्नचरित्र संस्कृतग्रन्थके नवीन हिन्दी भाषानुवाद में प्रद्युम्नका माता से मिलने और सैन्य के तैयार होने का वर्णनवाला दसवां सर्ग समाप्त हुआ ।
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