________________
चरणोंका प्रक्षालनकरके उन्हें सिंहासनपर तिष्टाया और थाप विनयसे प्रणामकरके दूसरे सिंहासनपर बैठ गया । ८७| नारदजीने स्नेहदृष्टिसे कुशल प्रश्न किये, फिर परस्पर वार्तालाप करते समय नारदजीने अपने सन्मुख बैठे हुए राजकुमार को देखा और विचार किया कि यदि इसकी बहिन होगी तो वह भी इसके समान सुन्दर होगी। यदि ऐसा हुआ, तो मेरेसब मनोरथ सफल होंगे। ऐसा विचारकर नारद - जीने भीष्मराज से पूछा | ८८- ६१ ॥ राजन् ! यह पुत्र जो साम्हने बैठा हुआ है, किसका है ? तब राजा ने अपनामुख नीचे झुकाकर कहा हे मुने ! आपके चरणकमलके प्रसादसे ये मेरा ही पुत्र है । नारदजी बोले, बहुत ठीक ६२-६३ | परन्तु इसकी माता के और कितनी संतानें हैं ? तब राजाने उत्तर दिया, मेरी दो संतान हैं, एक तो यह पुत्र और दूसरी पुत्री । नारदजी बोले राजन् ! तुम बड़े भाग्य शाली हो ।६४-६५। पर यह तो कहो कि उक्त पुत्री विवाहिता है या अविवाहिता ( कुँवारी ) ? राजा भीष्म ने उत्तर दिया भगवन् ! वहकन्या शिशुपाल राजाको देनी कह दी है । यहसुनकर नारद को जैसा आनंद हुआ, वह कहा नहीं जाता । ६६-६७ कुछ समय तक दोनोंका प्रेमसंलाप होता रहा । पश्चात् नारदजी आस से उठे | ८ | और उन्होने आदरपूर्वक राजासे कहा, मैं तुम्हारा रणवास (अंतःपुर ) देखना चाहता हूँ । तब राजाने प्रसन्नता से प्रत्युत्तर दिया, हे नाथ ! बहुत अच्छा, आप मेरे महलको पवित्र कीजिए । ६६-१००। तब नारदजी उसके सुन्दर रणवासमें गये । वहां भीष्मराजकी एक बालविधवा बहन थी । उसने मुनिको आता देख वाह्यलक्षणोंसे जान लिया कि ये नारद हैं । १०१-१०२ । तब वह खड़ी होगई । उसने मुनिका यथोचित सत्कार करके सिंहासन सन्मुख रखके नम्रता के साथ कहा, महाराज आप इसदिव्य सिंहासनपर विराजें । जबनारदजी सिंहासनपर बैठ गये । १०३-१०४। तब वह बोली- भो ! आपनेबड़ी कृपाकी जो यहाँ पधारे और अपने चरणाविंदसे इस स्थानको पवित्र किया । पुण्यहीन पुरुषों को आपके समान नरोत्तमों का समागम होना कठिन है । १०५ - १०६ । इस
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jaial orary.org:
प्रद्यम्न
२०
चरित्र