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________________ चरित्र षिणी मातासे बोले, हे गुणोंकी खानि माता, तू इस झगड़ेमें मत पड़। यहां पर थोड़ी देर चुपचाप बैठी रह ।७-६। ऐसा कहकर प्रद्युम्नकुमारने अपनी विद्याको भेजी। सो उसने गलीमें जाकर एक २६२ ॥ विप्रका रूप धारण कर लिया, जिसके कि सारे अङ्ग मिहनतसे थक रहे थे, और पेट स्थूल हो रहा था। सत्यभामाके महलसे भोजन करके वह निःसहात्मा अर्थात् अपने शरीरके बोझको भी नहीं सह सकने वाला वहां आया और दरवाजेपर फिसलकर गिर पड़ा। इतनेमें ही वहांपर बलदेवजीके सिपाही जा पहुँचे ।१०-१२। सो उन सबको ही विप्रने स्तंभित-कीलित कर दिया। केवल एकको खबर देनेके लिये छोड़ दिया। उसने सभामें जाकर सब वृत्तान्त बलदेवजीसे कह दिया। जिसे सुनकर बलदेवजी रुक्मिणीपर और भी क्रोधित हो गये ।१३-१४। और हँसी करके बोले, रुक्मिणी अब सामान्य स्त्री नहीं रही है। वह मांत्रिका अर्थात् मंत्रविद्याकी जानने वाली हो गई है। श्रीकृष्णको उसने मन्त्र हीसे वशमें कर रक्खा है ।१५। अब में उसके मन्त्रोंका महात्म्य जाकर देखता हूँ जिनसे उसने मेरे सेवकोंको कील दिया है ।१६। ऐसा कहकर वे उठे और क्रोधयुक्त शरीर से रुक्मिणीके महलकी ओर जल्दीसे चल पड़े। महलकी गलीमें पहुँचकर उन्होंने देखा कि एक विप्र पेटको फुलाये हुये लम्बा हो रहा है । और रास्ते को रोककर सोरहा है । उसे इसतरह पड़ा देखकर बलदेवजीने मीठे २ शब्दोंमें कहा कि, द्विजराज; यहाँ से उठ बैठो, और रास्ता छोड़ दो। मुझे इसी रास्तेसे जानेका काम है और वह बहुत जरूरी है यदि तुम नहीं उठते हो तो बतायो में तुम्हारे ऊपरसे कैसे जाऊं यह सुनकर विप्र महाराज बोले, हे क्षत्रियराज; में सत्यभामाके घर भोजन करके अभी आया हूँ। एक तो मेरा शरीर बहुत स्थूल है और दूसरे में बारम्बार होड़ लगाकर भोजन भी बहुत ज्यादा कर आया हूं, इसलिये मैं उठ नहीं सकता हूँ। आप पीछे लौटकर दूसरे मार्गसे चले जावें । यह सुनकर बलभद्र बोले, मरे नीच विप्र मेरा इसी मार्गसे बड़ा भारी Jain Educa international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.600020
Book TitlePradyumna Charitra
Original Sutra AuthorSomkirtisuriji
AuthorBabu Buddhmalji Patni, Nathuram Premi
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationManuscript & Story
File Size9 MB
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