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लिये कल्पवृक्षके समान, शत्रु की वनिताओं के मुखचन्द्रको मलीन करनेके लिये राहुके समान और यादवों के कुलरूपी समुद्रको बढ़ाने के लिये सदाकाल स्थिर रहनेवाले चन्द्रमाके समान था पृथ्वीपर उस समय ऐसा कोई भी राजा न था जो उसके शुभ लक्षण और गुणोंकी समानता कर सके || ३७-३८ ॥ कोटि शिला उठाने में उसके पराक्रमको देखकर अन्य राजाओं ने अपनी शूरताका घमण्ड छोड़ दिया था ||३६|| उसे मनोरथसे भी अधिक दान करते हुए देखकर ही मानों गये हुए कल्पवृक्ष फिर लौटकर आजतक नहीं आये ||४०|| 'हे स्वामिन्! आप गुणोंहीका आदर क्यों करते हो' ऐसा कहकर और क्रोधित होकर ही मानों अवगुण उससे दूर भाग गये थे ॥ ४१ ॥ निर्मलता, सुवृत्तता (गुलाई ) और प्रसन्नता (कान्ति) जो मुझमें है, वही चित्तकी वा बुद्धि की निर्मलता सुवृत्तता (अर्थात् उत्तमोत्तम व्रत का पालन ) और प्रसन्नता राजाने भी धारण कर ली है ऐसा जानकर ही मानों (ईर्षा भाव से) चन्द्रमा काला पड़ गया है || ४२ ॥ दिग्विजयको सैन्यसहित जाते समय आकाशमें धूल उड़कर मँड रहती है वह ऐसी जान पड़ती है मानों विश्राम के लिये दूसरी भूमि बन गई हो || ४३ || जिसके निर्दोष महत्वको देखकर इन्द्रने भी अपने ऐश्वर्यादिकी प्रभुताका गर्व छोड़ दिया ॥ ४४ ॥ जो सज्जनोंके पालने में तत्पर, दुष्टों के निग्रह करने में समर्थ, समुद्र के समान गंभीर और सुमेरु के समान स्थिर था । ४५ । जिसने परस्त्रियोंको अपना वक्षस्थल, शत्रु को युद्ध के समय पीठ और याचकोंको नकार (देने को नहीं है ऐसा वचन) कभी नहीं दिया ॥ ४६ ॥ | ऐसे अनेक गुणोंका धारक, चन्द्रके तुल्य मनोहर वह श्रीकृष्ण नारायण हरिवश के राजाओंका शृङ्गार बनकर राज्य करता था || ४७ | उस राजाकी सत्यभामा नामकी पट्टरानी थी जो निर्मल चित्तकी धारण करनेवाली शीलवती स्त्रियों में शिरोमणि पुण्यवती लावण्यके सर्व लक्षणोंसे मण्डित हाव भाव संयुक्त और अपने रूपकी सम्पदासे देवांगनाओं के भी रूपको तिर स्कार करने वाली थी ।४८ - ४६ ॥ वह अपने पति से कभी निवेदन करती थी कि हे स्वामिन्! आप मुझे
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चरित्र
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