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________________ १५८ कह सुनाये और यह भी प्रगट कर दिया कि वह सोलह लाभ तथा दो विद्याओं सहित द्वारिकामें प्रयुक्त आवेगा । १२-१४ । यह वृतान्त सुनकर रुक्मिणीको अथाह आनन्द हुआ । इस प्रकार पुत्रवार्ताको सुनाकर और कृष्णनारायण तथा रुक्मिणीको प्रसन्न करके नारदजी अपने यथोचित स्थानको चले गये । १५ । नारदजीके वाक्योंसे प्रीतियुक्ता रुक्मिणी अपने चिरंजीव पुत्रकी याद करती हुई और उसके आगमनकीबाट देखती हुई सुखसे रहने लगी । १६ । याचार्य कहते हैं: - इस प्रकार संसारी जीव कर्मके बन्धनमें पड़े हुए चारों गति सम्बन्धी सुख दुःखादिके योग से निरन्तर नाना योनियों में परिभ्रमण करते हैं । इसलिये निर्मल बुद्धिके धारक अपने हिताभिलाषी भव्यजीवोंको स्वर्गमोक्षका दाता जिनेश्वरप्रगीत सोम अर्थात् चन्द्रमा के समान निर्मल 'धर्म' सदाकाल धारण करना चाहिये | ४१७| इति सोमकीर्ति आचार्य विरचित प्रद्युम्नचरित्र संस्कृतग्रन्थके नवीन हिन्दी भाषानुवादमें प्रद्युम्न कुमारके पूर्वभवकी वार्ता तथा नारदकथित कृष्णपुत्रकी वार्ता से रुक्मिणीकी प्रसन्नताका वर्णनवाला आठवाँ सर्ग समाप्त हुआ। नवमः सर्गः पूर्वपुण्य के प्रभावसे श्री प्रद्युम्न कुमारने राजा कालसंवरके महलमें अपनी सुन्दरतासे मनुष्यमात्र के चित्तको वशीभूत कर लिया । वह ज्यों २ बाल्यावस्था से बड़ा होता गया, त्यों-त्यों उसका कलाकौशल्य इसप्रकार बढ़ता गया, जैसे दोयजके चन्द्रमाकी कला दिनोंदिन बढ़ती जाती है | १ | सर्व स्त्रीपुरुष उस मनोहर बालक को बड़ी प्रसन्नता से प्यार करने लगे और हाथोंहाथ खिलाने लगे । क्योंकि, पुण्यवान जीव सबको प्यारा लगता है |२| ज्यों २ प्रद्युम्नकुमार बड़ा होता गया, त्यों त्यों राजा कालसंवरकी ऋद्धिसिद्धि धनधान्यादिक समस्त वृद्धिको प्राप्त होती गई । ३। यह कुमार राजा और रानी दोनों को प्राणसे प्यारा लगने लगा। सो ठाक ही है, सौभाग्य और प्रेमपात्रता पूर्व पुण्यके उदयसे For Private & Personal Use Only Jain Educan International चरित्र www.jhelibrary.org
SR No.600020
Book TitlePradyumna Charitra
Original Sutra AuthorSomkirtisuriji
AuthorBabu Buddhmalji Patni, Nathuram Premi
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationManuscript & Story
File Size9 MB
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