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अञ्जन
प्र. कल्प
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बहु आवश्यक नहोतो, वळी, अंजनशलाका पण जवले ज थी, अने ते थाय त्यारे पण त्यां श्रीगच्छपति आचार्य के श्री पूज्यनी उपस्थिति रहेतो, तेथी आ "कल्प" नी हस्तप्रतिभाथो ज काम सरी जतुं, वळो, बचमां तो एवो पण गाळो आवी गयो के अंजनशलाका ज थती न हती. अंजनशलाका करवी-कराबवी, ए लोढ़ाना चणा चाववा समुं दुष्कर काम मनावा मांडेलु, खास करीने पालीताणामां शंठ केशव जो नायकनी, शेठ नरशी वे शबजीनी तथा बाबुना देरासरनी अंजनशलाकाओ वस्वते जे अनुभवो थया, त्यार पछी तो अंजनशलाकानी प्रवृत्ति लगभग बंध थइ गइ. आ संजोगोमां अंजन-प्रतिष्ठाकल्पना प्रतर्नु मुद्रण तो संभवे ज शेर्नु ?
एक तो आ कारण. अने बोर्जु कारण ए के "प्रतिष्ठा कल्प" नी रचना पछीना सो वर्ष पछी, धीमे धीमे संविग्नपक्ष घटतो गयो, शिथिलवृत्ति वधती गइ अने ते कारणे ज्ञानाच्या समां घणी मंदता आवी. आथी मूळे शुद्ध अने साफ एवा “ कल्प" ना पाठमां पण क्या क क्यांक कोइ नानी मोटी अशुद्धि आबी गइ हो य एवी कल्पना थाय छे. एक तो तेनो उपयोग घट्यो, बीजं उपयोग करनारना भणलरनी अल्पता आवी, आथी आवी कोइ अशुद्धि प्रवेशे तो ते अशक्य नथी.
दायकाओ सुधी आ स्थिति प्रवां करी. एमां पूज्य गणिवर्य श्री मूलचंदजी महाराज वगेरे संवेगीशिरताज महापुरुषोनो त उदय थतां सवेगी शाखा अने तेमां ज्ञान भ्यासनी प्रक्रयाना विकास खूब थयो, परंतु विधि-विधानना, खास कीने अंजनशल काना क्षेत्रमा कोइनु लक्ष्य गयु नहि, अने ओछामा ओछां ५० वर्ष तो अंजनशलाका विनानां प्रायः बोत्या, एम कही शकाय.. ___ या बाबत परत्वे सौथी प्रथम लक्ष्य गयु प. पू. शासन सम्राट्, तपागच्छाधिपति, बालब्रह्मचारी, आचार्य महाराज श्रीविजयनेमिसूरीश्वरजी महाराजनुं तथा तेओना पट्टशिष्यो--प्रशिष्यो पूज्यपाद आ. श्रीविजयोदयसूरिजी म. तथा पूज्यपाद आ. श्रीविजयनन्दन
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