________________
अञ्जन
प्र. कल्प
118 11
ગ
Jain Education
आवकार.
- विद्वर्य पूज्य पंन्यासजी श्री शीलचंद्रविजयजीगणी महाराज
संविग्नशिरोमणि, वाचकपदप्रतिष्ठित, बहुश्रुत, महोपाध्याय श्री सकलचन्द्रजी गणीश्वरे पोताना पूर्वाचार्योए रचेला विविध प्रतिष्ठाकल्प - ग्रंथोने नजर सामे राखीने, ते आचार्योनी तथा ग्रंथोनी आम्नाय - गुरुगम मर्यादाने संपूर्णपणे वफादार रहीने, आशरे ४५० वर्षो अगाउ, तपागच्छाधिपति परम गुरुदेव श्रीमद् विजय दानसूरीश्वरजी महाराजना तवावधानमां, " श्री प्रतिष्ठाकल्प " नामे ग्रंथनुं संकलनरूप निर्माण कर्यु, ते पछी अद्यावधि श्री जिनेश्वर भगवंतोनां बिंबो तथा चैत्योनी प्राणप्रतिष्ठा-प्रतिष्ठाना लोकोत्तरविधानमां एक प्रकारनी व्यवस्था के एकवाक्यता सधाइ छे अने अखंडपणे चाली आवी छे. आ प्रतिष्ठाकल्पनी संकटना पछी, ज्यारे ज्यारे अंजनशलाका थइ त्यारे त्यारे, एक सरखां विधि-विधान ज थवा मांड्यां. पहेलां एवं हतुं के ज्यारे जेने जे आचार्यकृत "कल्प" प्रमाणे करवानुं मन थाय त्यारे ते तेना आधारे तेम करता हशे. परंतु श्रीसकलचन्द्रजी महाराजे आ "कल्प" रच्यो, त्यार पछी प्रायः, ज्यारे पण, ज्यां पण, जेणे पण, अंजनशलाकानुं विधान कर्यु - कराव्य, तेणे आ "कल्प" नो ज आधार लीधो छे; अने एना सबळ पुरावा लेखे, आ प्रकाशनना पाछळना परिशिष्टमां मूकायेलं, प्रतिष्ठा कल्पस्तवन " लइ शकाय आवी बोजी कृतिओ पण मळे छे, अने ते बधुं जोतां समजाय छे के छेल्लां सो-दोढसो वर्षोना गाळामां थली प्रतिष्ठाभोमां, आधारग्रंथ तरीके प्रस्तुत "कल्प' नो ज उपयोग थतो रह्यो छे.
64
For Private & Personal Use Only
॥ ९ ॥
www.jainelibrary.org