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अञ्जन प्र. कल्प
॥१३२॥
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(१७) पछी लग्न - समय नजीक आवता ऊंचा स्वरे अने ऊंचा श्वासे नीचेना मंत्रो बोली भगवंतां पांचे अंगे अक्षरन्यास करवो.
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हूँ ( ललाटे); श्रीँ (नयनयोः); हीँ (हृदये); मेँ रौ ँ (सर्व संधिषु); श्लो ँ (पीठे - प्राकारे). (१८) घीनुं पात्र मूकवुं.
(१९) पछी परमेष्टिमुद्राधी नीचेना वे श्लोक तथा मंत्र बोली त्रणवार जिनाह्वान कर:--
उदयति परमात्म-ज्योतिरुद्योतिताशं विषयविनययुक्त्या ध्वस्तमोहान्धकारम् । शुचितरघनसारो-लासिभिश्चन्दनाघे - जिन पतिमिहगन्धैश्वर्चयेद् भक्तिभावात् ॥ १ ॥ ( मालिनी) घातिक्षयोद्भूतविशुद्धबोधान्, प्रबोधिताऽशेषविशेषलोकान् । सुरेन्द्र नागेन्द्र-नरेन्द्र वन्द्यान् समर्चयेत् श्रीजिननायकाञ् ज्ञः ॥ २॥ (उपजाति)
ॐ ह्रीं ह्रीँ नमोऽर्हस्परमेश्वराय चतुर्मुखाय परमेष्ठिने त्रैलोक्यगताय अष्टदिक्कुमारीमहिताय इन्द्रपरिपूजिताय देवाधिदेवाय त्रैलोक्यमहिताय अष्टमहाप्रातिहार्यधराय आगच्छ आगच्छ स्वाहा ॥ (२०) नीचेना मंत्रथी अधिष्ठायक देव-देवीनुं आह्वान करवुं (त्रणवार ):--
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