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उत्सपिणी - कालचक्र का अर्धभाग, उत्कर्ष का युग । पृथ्वी, वृक्ष आदि वस्तुओं का स्वारस्य और मनुष्यों के
पुरुषार्थ प्रादि गुण जिस काल में उत्तरोत्तर वृद्धि को प्राप्त होते रहते हैं वह समय । इस उत्सर्पिणी के छः पारा हैं :- १ दुषम-दुषमा, दुषमा, सुषम-दुषमा, ४ दुषम-सुषमा, ५ सुषमा,
सुषम-सुषमा। उपपात - देवयोनि एवं नरक योनि में जन्म ग्रहण करना। उष्णविकट - उबला हुआ गर्म जल । ऋजुमति - मनपर्यवज्ञान का एक भेद । इस ज्ञान से मन के भाव जाने जाते हैं । यह ज्ञान उत्पन्न होने के बाद
नष्ट भी हो जाता है तथा अधिक विशुद्ध भी नहीं होता। एषणा समिति - देखें, 'समिति' । कर्म - प्रात्मा के मूल स्वरूप को पाच्छादित करने वाली सूक्ष्म पौद्गलिक शक्ति कर्म कहलाती है । इस
कर्म के पाठ भेद हैं :-१. ज्ञानावरण-ज्ञान शक्ति को प्रावरण अर्थात् पाच्छादित करने वाला कर्म, २. दर्शनावरण - दर्शन अर्थात् सामान्य बोध को पाच्छादित करने वाला, ३. मोहनीय - आत्मबोध को रोककर मोहपाश में फंसाने वाला, ४. अन्तराय - पुरुषार्थ, दान, लाभ, भोग आदि में बाधा डालने वाला,५. वेदनीय-सुख और दुःख का निमित्त बनने वाला, ६. मायुष्य-मनुष्यादि भवों में जीवन-धारण का निमित्त, ७. नाम-गति, स्थिति, जाति, यश, अपयश आदि का निमित्त, ८. गोत्र-उच्चता नीचता आदि का बोधक । प्रारम्भ के चार कर्म 'घाती' और शेष चार 'अघाती'
कर्म कहलाते हैं। काउसग्ग - संकल्प-विकल्पों से मुक्त होकर, खड़े रहकर ध्यान करने का एक प्रकार का प्रासन । कायगुप्ति -देखें, 'गुप्ति' ।
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