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________________ इस प्रति के अक्षर बड़े, सुन्दर और मोड्युक्त हैं । प्रतिलिपिकार ने पड़ी मात्रा का भी प्रयोग किया है। प्रति का लेखन शुद्धतम है और किसी प्राचीनतम संस्करण की प्रति से प्रतिलिपि की गई है, क्योंकि स्थविरावली में आर्य फल्गुमित्र के पश्चात् ह गाथायें मात्र प्राप्त हैं । अर्वाचीन प्रतियों में फल्गुमित्र के पश्चात् जो गद्य पाठ और अधिक गाथाएँ हैं, वे इसमें प्राप्त नहीं हैं। मूनि पुण्यविजयजी ने प्राचीन प्रतियों के आधार से जो मूलपाठ स्वीकृत किया है, वही इस प्रति में प्राप्त है, इतना सा अन्तर अवश्य है कि गाथा के स्थान पर है। निम्नगाथा अधिक है : थेरं च प्रज्ज्वुड्ढं, गोयमगुत्तं नमसामि ।।४।। तं वंदिऊण सिरसा थिरचित्तचरित्तनाणसम्पन्न । सूत्रांक दो में देवलोक के नाम वर्णन प्रसंग में "महाविजय-पुप्फुत्तर-पवरपुंडरीयाप्रो महाविमारणाओ" के स्थान पर "महाविजयपुप्फुत्तरपवरपुंडरीयानो दिसासोवत्थियाओ बद्धमाणगाप्रो महाविमाणायो" पाठ प्राप्त है। प्रद्यावधि मुद्रित संस्करणों में तथा पचासों हस्तप्रतियों में 'दिसासोवत्थियानो बद्धमारणगाओ' पाठ प्राप्त नहीं होता है। यह पाठ केवल प्राचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कन्ध के पन्द्रहवें अध्ययन में प्राप्त होता है। इस दृष्टि से भी यह प्रति महत्त्व की कही जा सकती है। इस पाठ का प्रचलन न होने से प्रस्तुत प्रति के प्रवचूरिकार भी वास्तविक अर्थ को हृदयंगम न कर सके। अवचूरिकार ने अर्थ किया है :- "दिक्षु वस्थितात् प्रावलिकागतविमानमध्यस्थात् ।" २. मुद्रित पुस्तक कल्पसूत्र (चूणि, नियुक्ति तथा टिप्पणक सहित), सम्पादक, मुनि पुण्यविजय, प्रकाशक, साराभाई मणिलाल नवाब, अहमदाबाद, सन् १९५२ । ३. मुद्रित प्रति कल्पसूत्र, संपादक आनन्दसागरसूरि, प्रकाशक, देवचंद लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फण्ड, सूरत, सन् १९१४। ( xvi ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.600010
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakruti Bharati Sansthan Jaipur
Publication Year1984
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationManuscript, Canon, Literature, Paryushan, & agam_kalpsutra
File Size11 MB
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