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अर्थात् पूर्वं समय में जो रत्नमाल, पुष्पमाल और श्रीमाल नगर के भिन्न-भिन्न नाम से विख्यात था और जो प्राज भिन्नमाल के नाम से प्रसिद्ध है, उस नगरी में प्रोसवाल वंश के प्राभा नामक श्रावक रहते थे । श्राभा का पुत्र सादराज था और सादराज का पुत्र घुडसी था। घुडसी की धर्मपत्नी का नाम वाछु था । घुडसी के पुत्र का नाम लोला था । लोला की दो पत्नियां थीं - चन्दाउलि धौर जानी। लोला श्रावक के वज्रांग, दूदा, हेमराज, चम्पा और नेमराज नाम के पांच पुत्र थे तथा भांभू, सांपू और पातू नामक तीन पुत्रियां थीं ।
विधिपक्ष (अंचलगच्छ ) के गणनायक श्री भावसागरसूरि के धर्मसाम्राज्य में वाचकेन्द्र ( उपाध्याय ) श्री भानुमेरु के उपदेश से तथा वाचक विवेकशेखर के उपयोग के लिये इस लोला वक ने समस्त परिवार के साथ वि० सं० १५६३ में चित्रसंयुक्त कल्पसूत्र की इस पुस्तक को लिखवाया ।
इस प्रशस्ति के पश्चात् भिन्नाक्षरों में २०वीं शती के अन्तिम चरण में लिखित एक पुष्पिका और लिखी हुई है :
"श्रीराणपुरनगर वास्तव्य सुश्रावक - श्राद्धगुणसम्पन्न - सेठ- श्रीपुरुषोत्तमात्मज - वाडीलालाख्यनामधेयेन कल्पसूत्राख्यमिदं पुस्तकं स्वश्रेयसे श्रीमद्पन्न्यासपदविभूषितानां पूज्यपादानां देवविजयाख्यानां पठनार्थं समर्पितम् । वि० सं० १९८२ पौषकृष्णा १ ।"
अर्थात्- वि० सं० १९८२ पौष कृष्णा प्रतिपदा को राणपुरनगर निवासी सेठ पुरुषोत्तम के पुत्र बाडीलाल ने यह कल्पसूत्र की पुस्तक पन्नयास देवविजयजी को पठनार्थं समर्पित की।
" इन्हीं भावसागरसूरि के उपदेश से श्रीवंशीय श्रेष्ठि संग्रामसिंह के वंशज श्रेष्ठि हंसराज द्वारा वि० सं० १५६० में लिखापित आचारांग नियुक्ति की प्रति मेरे संग्रह में है ।
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