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________________ ( vi ) Jain Education International कि वीर नि० सं० ६८० में शास्त्रलेखन के पश्चात् वीर नि० सं० ६६३ में किसी गीतार्थ प्राचार्य ने प्रानन्दपुर ( बड़नगर ) के मूल चैत्यगृह में राजा ध्रुवसेन और समस्त संघ के सन्मुख लोक-कल्याण की भावना से सूत्र का सर्वप्रथम वाचन किया था। उस समय से लेकर आज तक पर्युषण पर्व के दिनों में संघ के सन्मुख कल्पसूत्र का वाचन होता आ रहा है और सम्वत्सरी के दिन मूल पाठ का वाचन अनिवार्य रूप से होता प्रा रहा है । श्वेताम्बर परम्परा के समग्र गच्छों द्वारा समान रूप से समाहत होने के कारण इस मंगलमय कल्पसूत्र के पठन-पाठन का सर्वाधिक प्रचार-प्रसार हुआ। प्रत्येक ग्राम और नगर स्थित चतुविध संघ के सन्मुख महामांगलिक सर्वोत्कृष्ट पर्युषण पर्व के समाराधन का प्रमुख स्रोत कल्पसूत्र होने से इस सूत्र का महत्त्व सर्वोपरि हो गया। प्रत्येक वाचक के पास इसकी एक प्रति का रहना आवश्यक हो गया। फलतः प्रचुर परिमाण में इसकी प्रतिलिपियां होने लगीं। १२वीं शती से २०वीं शती के मध्य में लिखित सहस्राधिक प्रतियां प्राज भी अनेकों भण्डारों में उपलब्ध हैं। इनमें से सैकड़ों प्रतियाँ तो सचित्र प्राप्त होती हैं। इनमें से कई प्रतियों में ७ से १२५ तक कलापूर्ण चित्र प्राप्त होते हैं । इनमें से कई प्रतियें कलापूर्ण बोर्डर युक्त हैं, तो कई स्वर्णाक्षरों में लिखित हैं, तो कई रजताक्षरों में लिखित हैं, तो कई स्वर्ण रजत संयुक्त हैं, तो कई लाल-काली स्याही में लिखित हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि सर्वाधिक और कलापूर्ण प्रतियाँ जितनी इस सूत्र की प्राप्त हैं, उतनी किसी भी आगम ग्रन्थ की प्राप्त नहीं हैं । प्रचार-प्रसार की दृष्टि से इसकी महत्ता आज भी सर्वोपरि है । व्याख्यायें :- कल्पसूत्र प्राकृत भाषा में निबद्ध है। प्रत्येक अध्येता इसके सूत्रार्थं को समझ सके, रहस्य को हृदयंगम कर सके, सूत्रानुरूप आचरण कर सके, इस मंगलमय सर्वजनहिताय उदार दृष्टि को ध्यान में रखकर, " आचार्य हस्तिमल्ल; जैन धर्म का मौलिक इतिहास, द्वितीय भाग पृ० ६६२ २ वही, पृ० ६६२ के अनुसार प्राचार्य कालक (चतुर्थ) ने इस सूत्र का संघ के सन्मुख सर्वप्रथम वाचन किया था । * पृथ्वीचन्दसूरिः कल्पसूत्र टिप्पणक, सूत्र २६१वें की व्याख्या ४ कल्पसूत्र टीकाएँ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.600010
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakruti Bharati Sansthan Jaipur
Publication Year1984
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationManuscript, Canon, Literature, Paryushan, & agam_kalpsutra
File Size11 MB
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