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स्थविरावली वर्तमान में जिस रूप में प्राप्त है, वह निश्चित रूप से आगमों को पुस्तकारूढ़ करते समय प्राचीन स्थविरों द्वारा परिवद्धित है । इस दृष्टि से इस सूत्र के प्रमाण में कमी-बेशी मानी जा सकती है। चरम श्रुतकेवली भद्रबाहु
___ दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र की नियुक्ति करते हुए प्रारम्भ में प्राचार्य भद्रबाहु ने लिखा है - "दशाश्रुतस्कन्ध, कल्प (बृहत्कल्प) और व्यवहार-सूत्र के प्रणेता, अन्तिम श्रुतकेवली, प्राचीन गोत्रीय भद्रबाहु को मैं नमस्कार करता हूँ।"
वंदामि भद्दबाहुं पाइणं चरिम-सयल-सुयनाणि । -
सुत्तस्स कारगमिसि दसासु कप्पे य ववहारे । नियुक्ति के इस पद्य में प्रागत 'चरिमसयलसुयनारिण' शब्द से स्पष्ट है कि चरम श्रुतकेवली भद्रबाहु भगवान् महावीर के शासन के सातवें पट्टधर और यशोभद्र के शिष्य थे और इन्होंने दशाश्रुतस्कन्ध छेदसूत्र की रचना की, जिसका कि यह कल्पसूत्र पाठवां अध्ययन है ।
आवश्यक चूणि, आवश्यक सूत्र हारिभद्रीया-बृहद्वृत्ति, तित्थोगालियपयन्ना, परिशिष्ट-पर्व आदि ग्रन्थों में भद्रबाहु के जीवन-प्रसंग में जो कुछ उल्लेख प्राप्त होते हैं, उनका सारांश इस प्रकार है :
वीर नि० सं०६४ में प्रतिष्ठान पुर के प्राचीन गोत्रीय ब्राह्मण परिवार में इनका जन्म हुआ । ४५ वर्ष की अवस्था में इन्होंने वीर नि० सं० १३६ में आर्य यशोभद्र के पास दीक्षा ग्रहण की। गुरु की सेवा में रहते हुए इन्होंने द्वादशांगी का अध्ययन किया और अन्तिम श्रुतकेवली बने । वीर नि० सं० १४८ में आर्य सम्भूतिविजय के साथ ही इन्हें प्राचार्य पद प्राप्त हमा । सम्भूतिविजय के स्वर्गारोहण के पश्चात् वीर नि० सं० १५६ में पाप पट्टधर संघनायक बने। इनके समय में बारह वर्षी दुष्काल पड़ा। लगभग १२ वर्ष तक नेपाल प्रदेश में रहते हुए इन्होंने योगारूढ़ होकर महाप्राण नामक ध्यान की साधना की। इनके समय में, किन्तु इनकी अनुपस्थिति में पाटलीपुत्र नगर में पागम वाचना हुई । इन्होंने आर्य स्थूलिभद्र को १० पूर्वो की अर्थ सहित और शेष ४ पूर्वो की
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