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## The Sixth Section of the Agamas: Mahabandha
**The Sixth Section of the Agamas, known as Mahabandha, has been explained.** It describes the process of karma particles being shed by the soul.
**Introduction to the Sixth Section:**
The second section of the Patkhaṇḍāgama briefly describes karma-bandha, hence it is known as Khuddabandha or Kṣudrabandha. However, the sixth section elaborates on the four types of bandha - nature, state, section, and region - through numerous Anuyoga-dwaras. Therefore, it is called Mahabandha.
**Bandha:**
Bandha refers to the association of karma-vargaṇās with the soul's regions due to the soul's actions driven by attachment, aversion, etc. There are four types of bandha:
* **Prakritibandha:** The nature of karma particles associated with the soul. It refers to the inherent nature of these particles to either veil the soul's knowledge, perception, etc., or to hinder its happiness.
* **Sthitibandha:** The duration for which the karma particles remain bound to the soul.
* **Anubhāgabandha:** The capacity of karma particles to produce their fruits.
* **Pradeshabandha:** The division of karma particles associated with the soul into eight types of karma (knowledge-obscuring, etc.) and their further classifications.
**The Sixth Section:**
This section elaborates on these four types of bandha in such detail that its size is five times larger than the first five sections combined. Due to its extensive nature, later Acharyas did not feel the need to write commentaries or explanations for it. It is believed to contain thirty thousand verses.
**The Lost Part of Prakritibandha:**
Although the initial parts of Mahabandha, particularly those related to Prakritibandha, have been lost due to the destruction of some palm leaves, the style of description in Sthitibandha, etc., suggests that the initial description of Prakritibandha would have been structured around twenty-four Anuyoga-dwaras. Their names are as follows:
1. **Ekājīva ki apeksha svāmityva:** Ownership in relation to one soul
2. **Apeksha bhangavichay:** Destruction of ownership in relation to one soul
3. **Bhāgābhāg:** Division of parts
4. **Bhāva:** State
5. **Alp bahul:** Few and many
6. **Prakritisamutkirtan:** Enumeration of nature
7. **Sarvabandh:** All bandha
8. **Nosarvabandh:** Not all bandha
9. **Utkṛṣṭabandh:** Superior bandha
10. **Anutkṛṣṭabandh:** Inferior bandha
11. **Jaghanyabandh:** Lowest bandha
12. **Ajaganyabandh:** Not lowest bandha
13. **Sādibāndh:** Bandha with beginning
14. **Anādibāndh:** Bandha without beginning
15. **Dhruvabandh:** Permanent bandha
16. **Adhruvabandh:** Impermanent bandha
17. **Kāla:** Time
18. **Antara:** Space
19. **Sannikarṣa:** Proximity
20. **Nānā jīvōnki:** Of many souls
21. **Parimaṇ:** Quantity
22. **Kṣetra:** Region
23. **Sparśan:** Touch
24. **Kāla:** Time
25. **Antara:** Space
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छक्खंडागम
निरूपण किया गया है । विस्रसोपचयप्ररूपणामें जीवके द्वारा छोड़े गये परमाणुओंके विस्रसोपचयका निरूपण किया गया है ।
६ छठे खण्ड महाबन्धका विषय-परिचय
यतः पट्खण्डागमके दूसरे खण्डमें कर्मबन्धका संक्षेपसे वर्णन किया गया है, अतः उसका नाम खुद्दाबन्ध या क्षुद्रबन्ध प्रसिद्ध हुआ । किन्तु छठे खण्डमें बन्धके प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशरूप चारों प्रकारके बन्धोंका अनेक अनुयोगद्वारोंसे विस्तार - पूर्वक विवेचन किया गया है, इसलिए इसका नाम महाबन्ध रखा गया है ।
जीव राग-द्वेषादि परिणामोंका निमित्त पाकर कार्मणवर्गणाओंका जीवके आत्म-प्रदेशोंके साथ जो संयोग होता है, उसे बन्ध कहते हैं । बन्धके चार भेद हैं- प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध । प्रकृति शब्दका अर्थ स्वभाव है । जैसे गुड़की प्रकृति मधुर और नीमकी प्रकृति कटुक होती है, उसी प्रकार आत्मा के साथ सम्बद्ध हुए कर्मपरमाणुओं में आत्माके ज्ञान-दर्शनादि गुणोंको आवरण करने या सुखादि गुणोंके घात करनेका जो स्वभाव पड़ता है, उसे प्रकृतिबन्ध कहते हैं । वे आये हुए कर्मपरमाणु जितने समय तक आत्मा के साथ बंधे रहते हैं, उतने कालकी मर्यादाको स्थितिबन्ध कहते हैं । उन कर्मपरमाणुओंमें फल प्रदान करनेकी जो सामर्थ्य होती है, उसे अनुभागबन्ध कहते हैं । आत्माके साथ बंधनेवाले कर्मपरमाणुओंका ज्ञानावरणादि आठ कर्मरूपसे और उनकी उत्तर प्रकृतियों के रूपसे जो बटवारा होता है, उसे प्रदेशबन्ध कहते हैं । इस प्रकार बन्धके चार भेद हैं । प्रस्तुत खण्ड में इन्हीं चारोंका वर्णन इतने विस्तार के साथ आ० भूतबलिने किया है कि उसका परिमाण प्रारम्भके पांचों खण्डोंके प्रमाणसे भी पाच गुना हो गया है । इतने विस्तारके रचे जानेके कारण परवर्ती आचार्योंको उसकी टीका या व्याख्या करनेकी आवश्यकता भी नहीं प्रतीत हुई। इसका प्रमाण तीस हजार श्लोक माना जाता है ।
यद्यपि महाबन्धके प्रारम्भके कुछ ताड़पत्रोंके टूट जानेसे प्रकृतिबन्धका प्रारम्भिक अंश विनष्ट हो गया है, तथापि स्थितिबन्ध आदिकी वर्णनशैलीको देखनेसे ज्ञात होता है कि प्रकृतिबन्धका वर्णन जिन चौवीस अनुयोगद्वारोंसे करनेका प्रारम्भ में निर्देश रहा होगा, उनके नाम इस प्रकार होना चाहिए --
१२ एकजीव की अपेक्षा स्वामित्व, अपेक्षा भंगविचय, १७ भागाभाग, २३ भाव और अल्पबहुल |
१ प्रकृतिसमुत्कीर्त्तन, २ सर्वबन्ध, ३ नोसर्वबन्ध, ४ उत्कृष्टबन्ध, ५ अनुत्कृष्टबन्ध, ६ जघन्यबन्ध, ७ अजघन्यबन्ध, ८ सादिबन्ध, ९ अनादिबन्ध, १० ध्रुवबन्ध, ११ अध्रुवबन्ध, १३ काल, १४ अन्तर, १५ सन्निकर्ष, १६ नाना जीवोंकी १८ परिमाण, १९ क्षेत्र, २० स्पर्शन, २१ काल, २२ अन्तर,
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