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श्रीपञ्चव.
३ गणागुण्णा
॥ २९७ ॥
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अहिअगरं गुणठाणं होइ अतित्थंमि एस किं ण भवे ? । एसा एअस्स दिई पण्णत्ता बीअरागेहिं ॥। १४९२ ॥ परिआओ अ दुभेओ गिहिजइभेएहिं होइ णायचो । एक्केक्को उ दुभेओ जहण्णउक्कोसओ चेव ॥ १४९३ ॥ अस्स एस ओ गिहिपरिआओ जहण्ण गुणतीसा ।
जइपरिआए वीसा दोस्रुवि मुक्कोस देखूणा ॥। १४९४ ॥ दारं ।
अप्पु णाहिजइ आगममेसो पडुच तं जम्मं । जमुचिअपगिट्ठजोगाराहणओ चेव कयकिचो ।। १४९५ ।। पुवाहीअं तु तयं पायं अणुसरह निश्चमेवेस । एगग्गमणो सम्मं विस्तोअसिगाइखयहेऊ ॥ १४९६ ॥ aa पत्तिकाले इत्थवज्जो उ होइ एगयरो । पुवपडियन्नगो पुण होज सवेओ अवेओ वा ।। १४९७ ॥ उवसमसेटीए खलु वेए उवसामि अंमि उ अवेओ । न उ खविए तज्जम्मे केवल पडि सेहभावाओ । १४९८ ॥ दारं ॥ टिमट्ठिए कप्पे आचेलक्काइएस ठाणेसुं । सर्व्वसु टिआ पढमो च ठिअ छसु अहिआ बिइओ || १४९९ ॥ आचेलक्कुद्देसिअंसिजाय रैरायपिंड किकम्मे । वर्गजिपडिक्कमणे मांसपजो सर्वकप्पे ॥ १५०० ॥ लिंगमि होइ भयणा पडिवज्जइ उभयलिंगसंपन्नो । उयरिंतु भावलिंगं पुत्रपवण्णस्स णिअमेण ॥। १५०१ ॥ इअरं तु जिण्णभावाइएहिं सययं न होइवि कथाएं ।
णय तेण विणावि तहा जायइ से भावपरिहाणी ।। १५०२ ।। दारं ॥ सासु विसुद्धा पडिवजह तीसु न पुण सेसासु । पुत्रपडिबन्नओ पुण होज्जा सवासुवि कहंचि ॥ १५०३ ॥
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जिनकल्पः
॥ २९७॥
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