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________________ G समभावेच्चिअजंतं जायइ सव्वत्थ आवकहिअंच। तो तत्थ न आगारा पन्नत्ता वीअरागेहिं ॥ ५१८॥ तं खलु निरभिस्संगं समयाए सबभावविसयं तु । कालावहिम्मिवि परं भंगभया णावहित्तेण ॥ ५१९ ॥ मरणजयज्झवसिअसुहडभावतुल्लमिह हीणनाएणं । अववायाण न विसओ भावेअवं पयत्तेणं ॥५२० ॥ एत्तोच्चिअपडिसेहो दढं अजोगाण वनिओ समए। एअस्स पाइणोऽविअ बीअंति विहि एसइसइणा ॥५२१॥ संतेविअ एअम्मी ओहेण विसिट्टयत्थमेअस्स । आगमभणिईअ तहा कहं न एएण कजंति ? ॥ ५२२॥ तस्स उ पवेसनिग्गमवारणजोगेसु जह उ अववाया । मूलाबाहाइ तहा नवकाराइंमि आगारा॥५२३॥ ण य तस्स तेसुवितहा णिरभिस्संगोण होइ परिणामो।पडिआरलिंगसिद्धोउ निअमओ अन्नहारूवो ॥२४॥ ण य पढमभाववाघायमो उ एवंपि अविअ तस्सिद्धी। एवं चिअ होइ दर्द इहरा वामोहपायं तु ॥ ५२५ ॥ ॥ न य सामाइअमेअंबाहइ भेअगहणेऽवि सव्वत्थ । समभावपवित्तिनिवित्तिभावओ ठाणगमणं व ॥५२६॥ उभयाभावेऽवि कुओऽवि अग्गओ हंदि एरिसो चेव । तकाले तब्भावो चित्तखओवसमओ णेओ ।। ५२७॥ अण्णे भणंति जइणो तिविहाहारस्स तं खलु न जुत्तं । सबविरईउ एवं भेअग्गहणे कहं सा उ? ॥ ५२८॥1 णणु अप्पमायसेवणफलमेअं देसि इहं पुष्विं । तन्भोगमित्तकरणे सेसच्चाया तओ अहिओ॥५२९॥ एवं कहंचि कजे दुविहस्सवि तं न होइ चिन्तमि। सचं जइणो नवरं पाएण न अन्नपरिभोगो ॥ ५३०॥ उवओगोएवं (अं)खलु एआ विगई नवित्ति जो जोगो। उच्चरणाई उ विही उडेपि अकजभोगगओ॥५३१॥ RACIOSASSARI Jain Education interne For Private & Personal Use Only < ww.jainelibrary.org
SR No.600005
Book TitlePanchvastukgranth
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherDevchand Lalbhai Pustakoddhar Fund
Publication Year1927
Total Pages634
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript, Ritual_text, & Conduct
File Size12 MB
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