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________________ श्रीपञ्चव. ५ संलेखवस्तुनि अभ्युद्यतविहारे ॥ २२१ ॥ - Jain Education Interna अब्भुज्जय मेगयरं पडिवज्जिउकामाँ सोवि पवावे । गणिगुणसलद्धिओ खलु एमेव अलद्धिजुत्तोऽवि १५५७ एव पहाणो एसो एगंतेणेव आगमा सिद्धो । जुत्तीए वि अ नेओ सपरुवगारो महं जम्हा ॥ १५५८ ॥ णय एत्तो उवगारो अण्णो णिवाणसाहणं परमं । जं चरणं साहिज्जइ कस्सइ सुहभावजोएण ॥ १५५९ ॥ अञ्चंतिअसुहहेऊ एअं अण्णेसि णिअमओ चेव । परिणमइ अप्पणोऽवि हु कीरंतं हंदि एमेव ॥ १५६० ॥ गुरुसंजमजोगो विहु विष्णेओ सपरसंजमो जत्थ । सम्मं पवमाणो थेरविहारे असो होइ ॥ १५६१ ॥ अच्चंतमप्पमाओऽवि भावओ एस होइ णायवो । जं सुहभावेण सया सम्मं अण्णेसि तकरणं ॥ १५६२ ॥ जइ एवं कीस मुणी थेरविहारं विहाय गीआवि ? । पडिवति इमं न कालोचिअमणसणसमाणं ॥ १५६३ ॥ तक्काले उचिअस्सा आणा आराहणा पहाणेसा । इहरा उ आयहाणी निष्फलसत्तिक्खया णेआ || अहवाऽऽणाभंगाओ एसो अहिगगुणसाहणसहस्स । हीणकरणेण आणा सत्तीऍ सयावि जइअवं ॥ एत्तो अ इमं एवं जं दसपुवीण सुबई सुते । एअस्स पडिस्सेहो तयण्णहा अहिगगुणभावा ॥ १५६६ ॥ For Private & Personal Use Only स्थविराम्यकल्पानां यथा कालता ॥ २२१ ॥ w.jainelibrary.org
SR No.600005
Book TitlePanchvastukgranth
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherDevchand Lalbhai Pustakoddhar Fund
Publication Year1927
Total Pages634
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript, Ritual_text, & Conduct
File Size12 MB
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