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श्रीपञ्चव. प्रतिदिनक्रिया २
॥५८॥
सालिवासठाणं समरे जिण पडिम सिट्टिपासणया|अइभत्ति पारणदिणे मणोरहो अन्नहिं पविसे ॥३४९॥ विधिभ
त्योःश्रेजा तत्थ दाण धारा लोए कयपुन्नउत्ति अ पसंसा।।
ष्ठिद्विको केवलिआगम पुच्छण को पुण्णो ? जिण्णसिद्धित्ति ॥ ३५० ॥ युगलं ॥
दाहरणं एगया भगवं महावीरे विहरमाणे वेसालाए वासावासं ठिए, तत्थ य अणुण्णविय ओग्गहं समरेत्ति-देवउले पडिमाए| ठिए, से य पडिमाए ठिए जिण्णसेट्टिणा दिवे, तं च दहण अतीव से भत्ती समुप्पणा, अहो ! भगवतो सोमया णिप्पकंपयत्ति, अहिंडणेण विण्णाओ चाउम्मासिगो अभिग्गहो सिट्ठिणा, अइक्कंता चत्तारि मासा, पत्तो पारणगदिवसो, दिट्ठो य भिक्खागोयरं पति चलिओ भगवं, समुप्पण्णो सिद्विस्स मणोरहो-अहो धण्णो अहं जदि मे भगवं गेहे आहारगहणं करेइ, गओ तुरिओ गेहं अप्प(णो, प) वड्डमाणसंवेगो य भगवओ आगमणं पलोइ पवत्तो, भगवंपि अदीणमणो गोयरद्वितीए अहिणवसिहिगेहं पविट्ठो, तेणऽविय भगवंतं पासिऊण जहिच्छाए दवावियं कुम्मासादिभोयणं, पत्तविसेसओ समुन्भूयाणि दिवाणि, अद्धतेरसहिरण्णकोडीओ निवडिया वसुहारा, कयपुण्णोत्ति पसंसिओ लोएहिं अहिणवसिट्ठी, जिण्णसेट्ठीऽवि
॥ ५८ . भगवओ पारणयं सुणेऊण न पविट्ठो मे भगवं गेहंति अवठियपरिणामो जाओ, गओ य भगवं खितंतरं, आगओ य. पासावञ्चिज्जो केवली तंमि चेव दिवसे वेसाली, मुणिओ य लोगेण, निग्गओ तस्स वंदणवडियाए, वंदिऊण य वसुधारावृत्तंतविम्हिएण लोएण पुच्छिओ केवली, भगवं! इमीए नगरीए अज 'को पुण्णोत्ति?' को महंतपुण्णसंभारजणेण
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