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________________ आचारदिनकर ॥१४२॥ माभो ॥ ४ ॥ नवहिं सएहिं संती छहिं सहस्सेहिं परिवुडो विमलो । उसहदसत्तणंतो सेसा उ सहस्स परिवारा ॥ ५॥ मा सुयह जग्गियब्वे पलाइअब्वे य कीसवीसमह । तिन्निजणा अणुलग्गा रोगो य जरा य मच्चू य ॥ ६ ॥ हा जीव पाव भमिहिसि जाइ जोणीसयाई बहुआई । भवसयसहस्स दुलहंपि जिणमयं एरिसं लदधुं ॥ ७ ॥ पावो पमायवसओ जीवो संसारकज-मुज्जुत्तो। दुक्खेहिं न निम्विन्नो सुखेहि न चेव परितुह्रो ॥ ८ ॥ जोवेण जाणिअ विसजिआणि जाइसएसु देहाणि । थोवेहि तओ सयलंपि तिहुयणं हुज्ज | पडिहत्थं ॥ १॥ नहदंत मंसकेसट्ठिएसु जीवेण विप्पमुक्केसु । तेसुवि हविज कइलासमेरुगिरिसंनिहा कूडा ॥ १० ॥ हिमवंत मलय मंदर दीवोदहि धरणि सरिसरासीओ। अहियअरो आहारो छुहिएण हारिओ हजा ॥११॥ जं जनेण लं पीयं धम्मायवजगडिएण तंपि इहं । सव्वेसुवि अगडतलायनइसमुद्देसु न वि हुन्जा ॥ १२ ॥ पीयं स्थणयत्छीरं सागरसलिलाओ बहुपरं हुज्जा । संसारम्मि अर्णते माऊणं अन्नमन्नाणं ॥ १३ ॥ पत्ता य कामभोगा कालमणंतं इहं सउवभोगा । अपुव्वं पिव मन्नइ तहवि हु जीवो मणे सुक्खम् ॥ १४ ॥ जाणइ अ जहा भोगिट्ठि संपया सब्वमेव धम्मफलं । तहवि ढमूढहियओ पावे कम्मे जणो रमइ ।। १५ ॥ जाणिजइ चितिजइ जम्मजरामरणसंभवं दुक्ख । नय विसएसु विरजइ अहो सुबद्धो कवडगंठी ।। १६ ॥ जाणइ य जह मरिजइ अमरं तंपि हु जरा विणासेइ । नय उविग्गो लोओ अहो रहस्सं सुनिम्मायं ॥ १७ ॥ | दुपयं चउप्पयं बहुपयं च अपयं समिद्ध महणं वा । अणविकएवि कयन्तो हरइयासो अपरितंतो ॥ १८ ॥ | ॥१४२॥ Jain Educat ional For Private & Personal Use Only w.jainelibrary.org
SR No.600003
Book TitleAchar Dinkar
Original Sutra AuthorVardhmansuri
Author
PublisherJaswantlal Girdharlal & Shah Shantilal Tribhovandas Ahmedabad
Publication Year1981
Total Pages566
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript, Ritual_text, & Conduct
File Size11 MB
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