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धर्मदूत
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कोई रेल से कट मरता है। कोई विष खा लेता है। कोई आत्म-हत्या के अन्यतम प्रयोग से मर जाता है । इसलिए भगवान् बुद्ध ने सभी दुःखों की उत्पत्ति के आठ कारणों को बतलाया | उन्होंने कहा – (१) वात प्रकोप (२) पित्त प्रकोप (२) कक्र प्रकोप (3) सन्निपात (५) ऋतु (५) विषमाहार (७) औपक्रमिक और (८) कर्म विपाक - दुःखों की उत्पत्ति के कारण हैं, हेतु हैं, निदान है।"
पिसं सेग्य बातोच सन्निपाता उनि च । विसमं ओषकमिको च कम्मविपाकेन अटुमी ॥ raininवादी कह सकता है कि यह सभी पुरबले कर्मों की ही देन है किन्तु अगर ऐसा होता तो उनके जुदा जुदा लक्षण न दीख पड़ते। हम देखते हैं कि जाड़ा, गर्मी भूख, प्यास, अधिक भोजन, स्थान, परिश्रम, दौड़-धूप, उपक्रम और कर्म विपाक इन दस कारणों से बात प्रकोप होता है। इनमें नव कारण न तो भूतकालिक है और न भविष्यत् कालिक ये सभी वर्तमान कालिक हैं। अतः यह मानना ठीक नहीं उतरता है कि सभी रोग पुरबले कर्मों के ही विपाक हैं। ऐसे ही पित्त, कफ भी जाड़ा, गर्मी, विषमाहार-पान से प्रकुप्त होते हैं। भली-भाँति विचार कर देखने पर दीख पड़ता है कि पुरवले कमों से उत्पन्न होनेवाली दुःखादि वेदनायें अवशेष कारणों से उत्पन्न वेदनाओं की अपेक्षा बहुत म्यून ।
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दुःख नपे तुले हुए हैं। उनका पटाव बहाव नहीं होता जैसे कि सुख की गोली फेंकने पर उधरती हुई गिरती है, ऐसे ही मूर्ख पण्डित - सभी आवागमन में पड़कर दु:ख का अन्त करेंगे।'
यदि सुख-दुःख नपे-तुले बराबर हैं तो क्या कारण है कि एक जीवनपर्यन्त पेट भर खाना नहीं पाता और दूसरा सर्वदा मालपुवे उड़ाता सुख की करवटें बदलता है ? अगर पुण्य पाप नहीं है, चौरासी हजार कल्पों के पश्चात् निर्वाण लाभ अवश्यम्भावी है, तो गृहस्थ और श्रमण में फर्क ही क्या ? वस्तुतः संसार शुद्धि वाद में न तो जीवहिंसा अनुचित ठहरती है और न चोरी, व्यभिचार, श, कटुवचन, आदि। पाप पुण्य नहीं मानने वाले को संसार में कोई भी बुरा काम गुनाह भरा नहीं ।
कूटस्थ आत्मभाव में हमारी सारी क्रियायें हमारे वशीभूत अपेक्ष्य हैं, किन्तु होता है ठीक इसके विपरीत । एक क्षण पहले की बात भी स्मृति पटल पर नहीं दीखती दो चार दिन अथवा वर्ष भर की तो दरकिनार । आत्मपरिकरूपना भी आत्मा के लिए सिद्ध नहीं होती । क्षणक्षण बदलने वाला नाम रूपों का योग ( पञ्चस्कन्ध) सर्वथा अनित्य, दुःख और अनात्म है। 'क
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भगवान् बुद्ध ने पुरबले कर्मों को इनकार नहीं किया, उन्होंने भी कहा – 'सभी सत्य अपने कर्मों के साथी हैं। कर्म-दायाद हैं। कर्म ही उनकी योनि है वे कर्मबन्धु हैं। उनका रक्षक या विनाशक कर्म ही इस हीन -प्रणीतता में विभक्त करता है। इस जीवन में उनके कर्म और विपाक मौजूद है। विपाक कर्म से उत्पन्न होता तथा इस प्रकार सत्व की उत्पत्ति का सिलसिला बँध जाता है । परन्तु "सभी दुःख पुरबले कर्मों के ही विपाक हैं ।" - ऐसा नहीं कबूल किया ।
हम देखते हैं कि बात, पित्त, कफ़ और सन्निपात के प्रकोप से अनेक रोग उत्पन्न होते हैं ऋतु तथा विषम आहार -पान के कारण भी नाना रोग उठ खड़े होते हैं । बहुत से लोग जीवन से आजिज हो उपक्रम कर मर जाते
* मिलाओ, संयुक्त निकाय २, २३, १, ८ इत्यादि ।
भगवान् ने सभी कर्मों का चार प्रकार से विभाजन परयय से (२) विपाक के काल के अनुसार (४) विराक किया है (1) कृत्य के अनुसार (२) विपाक देने के के स्थान के अनुसार
इस प्रकार बुद्ध ने ईश्वर की गुलामी से निकालते और आत्मा के नित्य, शाश्वत होने की बुरी धारणा को त्यागते हुए कहा है-" भिक्षुओं, सभी युद्ध कर्मवादी, क्रियावादी, वीर्यवादी होते हैं, मैं भो इन्हीं तीनों वादों का समर्थक हूँ, इन्हीं की शिक्षा देता हूँ जो ऐसा कहते हैं कि कर्म नहीं है, बीर्य (उद्योग) नहीं है, किया नहीं है, ये केशकम्बल जैसे पूणित हैं ।"
जब तक पाप कर्म का विपाक नहीं मिलता है, तब तक मूर्ख आदमी मधु के समान समझता है, किन्तु जय पाप का विपाक मिलता है, तब दुःखी होता है। बहुत