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धर्मदूत
शिष्यों को अपने जैसा ही बना लेते हैं। जब जलती शारीरिक जन्म एक ही बार होता है। पर मानसिक हुई एक मशाल का दूसरी मशाल से सम्पर्क होता है जन्म बार-बार होता रहता है। संसार के सभी महान् तो वह भी जल जाती है। फिर जो निर्जीव थी वह जीवित जाग्रत मशाल बन जाती है। जब तक मनुष्य किसी
पुरुष प्रत्येक व्यक्ति को महान् बनने की प्रेरणा देते हैं। महान् पुरुष से अपना मानसिक सम्पर्क स्थापित नहीं कभी यह प्रेरणा एक व्यक्ति से मिलती है, कभी दूसरे से । . कर लेता वह मनुष्य ही नहीं बनता। जिस प्रकार हम किसी न किसी महान् पुरुष का निकटतम मानसिक सम्पर्क
शरीर से अपने भौतिक माता-पिता के पुत्र हैं, मन से बनाये रखना हमारे लिए आत्मोत्थान का सर्वोत्तम हम उन लोगों के पुत्र हैं जिन्हें हम ज्ञानी मानते हैं। उपाय है।
बुद्ध का कर्मवाद
भिक्षु धर्मरक्षित
संसार में अनेक पारस्परिक खिलाफ बातें दीखती हैं- समय इतना दुःख खत्म हो गया और इतना बाकी है जो एक हीन है तो दूसरा उत्तम । एक अल्पायु है तो दूसरा इतने समय में खत्म हो जायेगा ? इसी जन्म में सारी दीर्घायु । एक रोग बाहुल्य का शिकार बना हुआ है तो बुराइयों का अन्त हो जायेगा और कुशलधर्म का लाभ ? दूसरा एकदम निरोग । एक बदसूरत है तो दूसरा बहुत यदि 'नहीं' तो पुरबले कर्मों के हेतु ही सबको स्वीकार ही खूबसूरत । एक निर्बल है तो दूसरा सबल । एक दरिद्र करना न्याय संगत नहीं ।* है तो दूसरा महाधनी । एक नीच कुल में उत्पन्न हुआ है दूसरा दार्शनिक कहता है-'सबको बनाने वाला तो दूसरा उच्चकुलमें। एक निर्बुद्धि है तो दूसरा बुद्धि- जगत-नियन्ता एक ईश्वर है, जो सब जगह और मान । इन विभिन्नताओं के क्या मूल हेतु हैं ? कौन से रहता है, यदि यह सत्य है तो वह बड़ा ही अन्यायी, ऐसे कारण है कि सभी एक योनि में उत्पन्न होकर भी दुःखद, व्यभिचारी, कुटिल और सब तरह की बुराइयों की मुख्तलिफ बातों में बिल्कुल जुदा है।
जड़ है, क्योंकि तत्प्रवर्तित दुःख आदि कष्टदायक अनुभगवान् बुद्ध के पूर्व और समसामयिक दर्शनिकों में भूतियों का ही पलड़ा भारी है । नृशंसता, शोषणता आदि यह प्रश्न एक ऐसी जटिल समस्या का विषय रहा कि से जगति-तल व्याकुल है। अगर सारी अनुभूति उसकी है एतद् विषयक मतैक्य कभी भी नहीं हो सका । एक दार्श- तो दरअसल वह बड़ा मूर्ख है क्योंकि संसार की दुःखादि निक कहता है-'जहाँ तक व्यक्ति की हीनता प्रणीतता, पीड़ाओं के लिये सभी सत्व अनिच्छुक हैं।
आदि बातें दीखती हैं, उन सब के कारण है यह ईश्वर वस्तुतः एक महान गुलामी की शिक्षा है जो व्यक्ति के पूर्व कर्म । जब वह पुरक्ले कर्मों को तपस्या कभी भी विचार विमर्ष को स्थान नहीं देता और अपने को द्वारा समाप्त कर डालेगा और नये कर्मों को नहीं करेगा एक दूसरी शक्ति का पक्का गुलाम समझता है। तो भविष्य में विपाक रहित होगा, विपाक रहित होने से तीसरा दार्शनिक कहता है-'दान, यज्ञ, हवन करना उसके सारे दुःख खत्म हो जायेंगे।'
व्यर्थ है, अच्छे-बुरे कर्मों का फल-विपाक नहीं है, न ... यदि सारे सुख-दुःख पुरबले कर्मों के ही विपाक हैं तो क्या व्यक्ति जानता है कि हम पहले थे अथवा नहीं? * मिलाओ मज्झिम निकाय १,२,४। हमने पूर्व जन्म में पाप कर्म किया है अथवा नहीं? इस +मिलाओ दीघ निकाय १, १ और जातक १८,३ ।