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________________ * अहिंसा-वाणी के है। मनुष्य की सीमित शक्तियों के ये दो संसारी जीवों की इस दुखद भवस्था पहलू प्राचीन समय से चली आ रही इस का कारण जैन धर्म में 'मानव' को 'उक्ति से स्पष्ट होते हैं कि "जैसा मनुष्य बताया है, जिसका अर्थ आत्मा में कमबोता है-वैसा काटता है"। इस कथन से रूपी पुद्गल परमाणुओं का आगमन है। दो मतलब निकलते हैं। एक तो यह कि इस आश्रव के दो रूप हैं-आजीवमनुष्य बाह्य निमित्त से भी अपनी करनी रिधकरण (द्रव्याश्रव ) और जीवा( सुख-दुख रूप में) का प्रतिफल पाता रिधकरण (भावाश्रय ) आत्मा, शरीर है । और दूसरा यह कि वह अपने स्वयं मन और वचन से जुड़ी हुई है जो के द्वारा अपनी करनी के बीजों को खुद कि पुद्गल की ही पर्यायें हैं। उपरोक्त बोता है। मन-वचन और काय प्रतिक्षण कार्य . उदाहरण के तौर पर नैयायिक आदि शील रहते है। कभी तो स्वयं ही अन्य दार्शनिकों ने, जो कि वैदिक परम्परा तथा वहुधा वाह्य चीजों जैसे पुस्तकेंके अनुगामी हैं, उन्होंने भी इस बात को चित्र-मूर्तियाँ के सम्पर्क के प्रभाव स्पष्ट किया है कि मानव की सभी वाह्य से परिणमन करती हैं। प्रवृत्तियाँ राग-द्वेष और मोह के द्वारा मनुष्य के शरीर मन और वचन में प्रभावित होती हैं। और ये प्रवृतियाँ जो परिणमन होता है वह अजीवरीध. मैंनुष्य में एक ऐसी अजीब प्रकृति का करण (पुद्गल का परिणाम है ) जीव. निर्माण करती है जो कि अदृश्य कहलाती रोधकरण अथवा भावानव का मतलब हैं और जो आगे चलकर उसके भिन्न-भिन्न यह है कि जीव जो कि मन-वचन-कृत्य स्वरूपों से प्रगट होती हैं । यद्यपि उसके से सम्बद्ध है, इनकी प्रवृत्तियों के कारण ये बाह्य स्वरूप उसकी स्वाभाविक प्रकृति स्वयं भी अपनी प्राकृतिक स्थिति से च्युत के विपरीत हैं फिर भी उसे अपने किये हो जाता है और प्रात्माये इस हलनचलन का फल भोगने के लिए वाध्य करती है। को ही जैन दर्श ने योग कहा है जो कि यद्यपि बौद्ध धर्म ने सभी वस्तुओं आत्मा को वाम शक्तियो से प्रभावित के स्वभाव को अत्यंत क्षणभंगुर माना होने के लिए बाह्य करता है। इस है फिर भी वह इस गंभीर सत्य को प्रकार योग ही परिणाम प्राव है। स्वीकार करता है कि जो मनुष्य की इस तरह यह स्पष्ट है कि योग का इस क्षण में अवस्था है वह उसके कार्य आत्मा को एक विशेष रूप से पिछले कार्यों का प्रतिफल है। जैन परिवर्तित करना है। दर्शन में मानव मात्र की उपरोक्त इन, आत्मा के पौद्गालिक पर्यायों के दो प्रकार की दुर्दशाओं का वर्णन और लिए उपरोक्त कारणों के प्ररितरिक्त चार उनकी यथार्थता और भी अधिक स्पष्ट कषाय क्रोध-मान-माया लोभ भी कारण रूप में जोर देकर बता दी गई है। हैं। इस प्रकार मानव की खददु
SR No.543515
Book TitleAhimsa Vani 1952 06 07 Varsh 02 Ank 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherJain Mission Aliganj
Publication Year1952
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Ahimsa Vani, & India
File Size30 MB
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