________________
कर्म-सिद्धांत और मानव एकता [श्री डॉ० हरिसत्य भट्टाचार्य एम० ए०, बी० एल०, पी० एच-डी०] ... [अ० विश्वजैन मिशन के इन्दौर अधिवेशनं पर आयोजित अहिंसा सांस्कृतिक सम्मेलन, में दिए गए, अंग्रेजी भाषण का हिन्दी अनुवाद]
मनुष्य-मनुष्य में स्पष्टतया श्राम तौर से मानव-मात्र में सहपरिलक्षित होने वाली विभिन्नताओं जतया असंतोष की भावना विद्यमान - के बावजूद कुछ ऐसे बुनियादी मुद्दे रहती है । यही सत्य राष्ट्रों में भी लागू भी है जिनपर सब ही मानव एक मत होता है। रखते हुये मिलते हैं। किसी भी एक किसी भी राष्ट्र की सरकार व्यक्ति की बात ही ले लीजिये । व्यक्ति विश्वस्त रूप से यह नहीं कह सकती के बारे में यह सरलता से बिना किसी कि उसने दुनियाँ की परिस्थितियों झिझक के कहा जा सकता है कि वह को भली प्रकार समझ लिया है, उसकी वर्तमान स्थिति से कभी भी पूर्ण उसके निर्णय पूर्णतया तथा सही हैं । संतुष्ट और तृप्त नहीं रहता। प्रत्येक दिशा और उसकी शक्ति की कोई चुनौती में वह अपने आप को सीमित अनुभव नहीं दे सकता तथा उस राष्ट्र की करता है। उसकी कल्पना की दौड़ जनता सुख की चरम सीमा प्राप्त कर जहाँ तक जाती हैं, उसमें वह अपने चुकी है। आपको तात्कालिक और बाद के भिन्न भिन्न तौर-तरीकों से इस प्रश्नों और समस्याओं को हल प्रकार समग्र राष्ट्र और व्यक्ति-व्यक्ति करने में अपने आपको अपर्याप्त पाता सही मानी में एक सीमा में बंधे हुये है । यही बात उसकी शक्ति के सम्बंध हैं, इस सीमित शक्ति का कारण में लागू होती है । और इसी तरह मानव-स्वभाव पर असर डालने वाली जीवन के प्रत्येक क्षेत्र का हाल है। . परिस्थितियाँ हैं। कोई भी व्यक्ति साधा___इस प्रकार मानव जीवन की रण स्थित में दुःखों में नहीं रहना चाहता । घटनाओं का कुछ ऐसा बंधा हुआ अतएव वे शक्तियां जो मनुष्य की शक्ति क्रम हो जाता है कि प्रायः दार्शनिक को सीमित करती हैं, मनुष्य की प्रकृति और-सुशिक्षित मनुष्य भी यह कहने का वाह्य रूप है और फिर वह उनको
लगता है कि जीवन-दुःख क्रमिक . मानसिक विकृति की स्थिति में स्वयं --- घटनाओं की एक घटना मात्र है। . निमंत्रित करता है-जैसा कि प्रतीत होता