SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 35
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ *श्री अखिल विश्व जैन मिशन के प्रथमाधिवेशन इन्दौर का भाषण* २७ इसके लिये अब वैरागय की व्याख्या प्रत्यक्ष सेवा को अपना धर्म मानने को बदलने की जरूरत है। यह खुशी लगेगे। वैराग्य का अर्थ निष्क्रियता की बात है कि हमारे साधु पिछड़े नहीं है, अनासक्ति है। और अछूत माने जानेवाले लोगों में हमारे बहुत से भाई कहते हैं मांस-मदिरा के त्याग का उपदेश जैनों की संख्या बढ़ानी चाहिये । धर्म करते हैं और वे लोग उनकी ओर को संख्या से तौलना मेरी समझ में आकर्षित भी होते हैं, लेकिन साधु नहीं आता। इस तरह जो संख्या महाराज के बिहार करने के बाद बढ़ाई जाती है उसके पीछे कोई बाहरी बात जहां की तहां रह जाती है। लाल व होती है । ईसाई और मुसल. सामाजिक दृष्टि से साधुओं का मान बनने में लोगों को बहुत सी वैराग्य इतना एकाकी हो गया है सुविधायें मिल जाती हैं। जैसे कि कि वे अब अनुपयोगी माने जाने उनमें जात-पांत का विचार नहीं रहता, लगे और गृहस्थ तो बेचारे मोह में असमानता का प्रश्न नहीं रहता और प्रत्यक्ष फंसे रहते हैं। गृहस्थों के पीछे बेकारी भी नहीं रहती। जैन बनने पूरा संसार लगा रहता है, उनसे पर भी यदि हम सामाजिक समानता त्याग की बात करना ठीक नहीं और का हक दें और मेल जोल का व्यवहार साधु इतने त्यागी होते हैं कि समाज करें तो बहुत से भाई जैन बन सकते से कोई वास्ता नहीं रखते अगर हैं। लेकिन आज की स्थिति में ऐसा हमारे साधु सेवा को वैरागय मानें नहीं सोचा जा सकता । आज तो और अनासक्त भाव से समाज की जैन बननेवाले को अपनी जाति और सेवा करें तो उनसे समाज का बहुत जैनजाति दोनों से उपेक्षित होना भला हो सकता है । इस प्रत्यक्ष सेवा पड़ेगा। जैनधर्म के वात्सल्य और से वे आदर के पात्र बनेंगे और स्थितिकरण अंग को यदि जीवन में विश्व का हित भी होगा । जो काम उतारा जाय तो संख्या वृद्धि की इच्छा कानून और पुलिस नहीं कर सकती भी पूरी हो सकती है। पर संख्यावह साधु आसानी से कर सकते वृद्धि हमारा आदर्श नहीं होना हैं। समाज त्याग की कद्र करना चाहिये । यह एक प्रकार का निचले जानती है, पर ऐसे त्याग का तिर. दर्जे का मोह है। हमारा-आदर्श तो स्कार भी कर सकती है जो भार रूप तत्त्व-पचार होना चाहिये । तत्त्वप्रचार हो जाय। हमें आशा करनी चाहिये का मूल आधार है हमारा आचरण । कि समय साधुओं को ऐसा सोचने साहित्य और उपदेश का असर भी के लिये विवश अवश्य करेगा। और होता है, पर आचरण का प्रभाव कुछ "वे भी स्वेच्छा से, आनन्दपूर्वक भिन्न ही होता है । हमें जोश, उत्तेजना,
SR No.543515
Book TitleAhimsa Vani 1952 06 07 Varsh 02 Ank 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherJain Mission Aliganj
Publication Year1952
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Ahimsa Vani, & India
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy