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________________ दिगम्बर जैन | अंक ७ ] विष भी क्यों न हो पथ्य है । जो वस्तु हितकर है परन्तु प्रकृति के प्रतिकूल है। तो भी उसका सेवन करे और जो वस्तु अंतमें दुःख देनेवाली अहितकर है वह तत्कालमें प्रकृ तिके अनुकूल - सुखकर भी हो उसका सेवन नहीं करे । बलवानको सभी भली बुरी चीजें पथ्य हैंपचसकती हैं ऐसा समझकर हालाहल जहर नहीं खाना चाहिये क्योंकि जो अत्यन्त निपुण और अगद तन्त्रके जानकार भी हैं अर्थात विष वैध हैं, उनका भी किसी समय समुचित चिकित्सा नहीं करनेसे विषसे भी मरण होजाता है अर्थात विष उनका मुलाहजा नहीं करता है। इस विषवैद्य के दृष्टान्तसे पूर्वोक्त उपदेशका समर्थन किया गया है जिस तरह विषके खाने व सांप आदिके काटने से और उसका उचित प्रतीकार नहीं करनेसे विषवैद्यकी मृत्यु हो जाती है उसी तरह अंडबंड पदार्थोंके खानेसे मनुष्य की भी मृत्यु हो जाती है । अतिथि और अपने आश्रितों (जिनका भरण पोषण करना अपने आधीन हो ) को आहार प्रदान करने के बाद स्वयं भोजन करना चाहिये । चित्तको एकाग्र करके देव, गुरु और धर्मकी विश्वास नहीं करता है । उपासना करना चाहिये । स्वतंत्रता-स्वाधीनता मानवजीवनके लिये परम रसायन है । यह परम रसायन जिनके पास नहीं है वे जीते हुए भी मृतकोंके समान हैं । आचार्य वादी सिंह ने लिखा है [ १३ पराधीन जीवन से मरना ही अच्छा है । जंगलों में स्वच्छन्दता पूर्वक विहार करनेवाले गजरान हमेशा सुखचैन से जीवन बिताते हैं । हमेशा सुखके लिये सेवन करने योग्य दो ही वस्तुयें है । १ रसीला, मनोहर, स्वच्छन्द भाषण और तांबूल भक्षण | बहुत अधिक समय तक उकरूँ बैठकसे नहीं बैठना चाहिये क्योंकि उकरूँ बैठक बैठने से रसको बहानेवाली नसें जड़ होजाती हैं जिनसे उनमें भलीभांति रसका संचार नहीं होता है अतएव वह अंग सूब जाता है । हमेशा बैठे ही नहीं रहना चाहिये जो हमेशा बैठे रहते हैं वे आलसी होजाते हैं और उनके हाथ पैर आदि अंग शिथिल पड़ जाते हैं, तोंद बढ़ जाती है तथा विचारशक्ति और संभाषण शक्ति भी कुंठित होजाती है । शारीरिक व मानसिक परिश्रम मात्रा ( हद्द) से अधिक नहीं करना चाहिये क्योंकि अधिक परिश्रम करनेसे कालमें ही बुढ़ापा आ जाता है। किसी भी कार्यके प्रारंभ करनेके पहिले परमात्माका स्मरण अवश्य करना चाहिये । जो नास्तिक हैं देव गुरु धर्मको सच्चे हृदयसे नहीं मानते हैं ऐसे पुरुषोंके ऊपर कोई भी जिसके क्लेश, कर्मो का फल और इच्छायें नहीं हैं वही ईश्वर है । अन् अन, अनंत, शंभु, बुद्ध, तमोन्तक (अज्ञान अंधकार का नाश करने - वाला) ये सब विशेष नाम उसी ईश्वर के हैं । जिस तरह से अपने को पूर्ण सुख स्वाधीनता जीवितान्तु पराधीनाज्जीवानां मरणं वरम् । मिले उसी तरह से कार्योंके लिये दिन रात्रिका
SR No.543197
Book TitleDigambar Jain 1924 Varsh 17 Ank 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kisandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1924
Total Pages42
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Digambar Jain, & India
File Size7 MB
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