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________________ [११ अंक ७ दिगम्बर जैन । पुद्गल आप ही कर्म रूरसे बंध जाते हैं । जैन (२) जैन मूल साहित्यको तथा उसके भिन्न साहित्यके सिवाय अनैनोंके साहित्यमें इसका १ विषयके रहस्यको प्रगट करनेवाली पुस्तकोंको विधान नहीं मिलता है। स्वदेश परदेशकी अनेक भाषाओं में लाखों (६) इस जैन धर्ममें जो साधुके व गृहस्थके करोड़ों प्रतिएं मुद्रित कराकर विना मुल्य या आत्मोन्नतिके साधन हैं उन सबोंको पालते हुए अल्प मूल्यमें वितरण करना चाहिए। वर्तमानमें सुख शांति प्रगट होती है व मन (३) जो अनैन धर्मपर श्रद्धा लावें उनको अतिशय न्यायमार्गी होता है तथा भविष्यमें जैन धर्मकी दीक्षा देकर उनके व्यवसाय व सुख शांतिके निमित्त मिलते हैं । कहा है- आचार विचारके अनुकूल उनका वर्ण स्थापित सुखितस्य दुःखितस्य च करके उनके साथ संबंध करके उनको अपने में संसारे धर्मएव तवकार्यः। मिलालेना चाहिए। इन तीन उपायोंको जब सुखितस्य तदभिवृद्धयै, तक प्रचारमें न लाया जायगा तबतक केवलमात्र दुःखभुजस्तदुपघाताय ॥ १८॥ प्राचीन साहित्यकी रक्षा करना धनको जमीनमें आत्मानुशासन । गाड़नेके समान होगा। दिगम्बर जैनाचार्योके अर्थ-संसारमें सुखी हो या दुःखी हो हरए- प्राचीन साहित्यका-जैसा मुझे ज्ञान है अमूल्य . कको धर्म करना चाहिए । इससे सुखीके सुखकी भंडार अभी बहुतसा ताड़पत्रों पर है। वृद्धि होती है व दुःखीका दुख दूर होता है। दिगम्बर जैनोंके प्राचीन इत्यादि अनेक महत्वपूर्ण जैन धर्मको प्रकाश भंडार के स्थान । करनेवाला यह जैन साहित्य है, इससे जगत- १-कांची देश मदरास ( श्रीयुक्त भट्टारक मात्रका सच्चा, हित होसकता है परन्तु खेद है कांचीके पाप्त) इस साहित्यका प्रचार बहुत कम है। भारतमें २ मूडबिद्री (साऊथ केनेरा) केवल ११॥ लाख ही इसके माननेवाले हैं। ३-जनबद्री ( श्रवणबेलगोल-मैसुर ) इस जैन साहित्य परिषदका कर्तव्य होना ४-कोल्हापुर ( मट्टारक लक्ष्मीसेन ) चाहिए कि वह इस साहित्यका दुनियामें प्रचार ५- .. करे, जिसके लिये ये उपाय करने योग्य हैं- ६-शोलापुर दिगम्बर जैन मंदिर (१) जैन साहित्यके ज्ञाता ऐसे विद्वान् तैयार ७-कारंजा ( अकोला ) मंदिर देवसंघ, सेनसंघ करना चाहिए जो स्वदेश परदेशमें भ्रमण करके काष्ठासंघ भनेक भाषाओंमें जैनधर्मका महत्व जनताके ८-नागपुर दि. जैन मंदिर दीतवारी चित्त पर अंकित कर सकें। चीन, जापान, ९.ईडर . , ममेरिका, माफ्रिका, भरब, युरुप सर्वत्र जैन १०-सोजित्रा , व्याख्याताओंको जाना चाहिए। ११-करमसद ,
SR No.543197
Book TitleDigambar Jain 1924 Varsh 17 Ank 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kisandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1924
Total Pages42
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Digambar Jain, & India
File Size7 MB
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