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________________ १०] समाधि है । कहा है न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे, दिगम्बर जैन । [ वर्ष १७ काता है तथा किसी विशेष धर्मको विशेष तथापि ते पुन्यगुणस्मृतिर्न:, पुनातु चित्तं दुरिताञ्जनेभ्यः ॥५७ स्वयंभूस्तोत्र 1 अर्थ - हे नाथ ! आप राग रहित हैं इससे आपको हमारी पूजा से प्रयोजन नहीं । आप वैर रहित हैं इससे हमारी निन्दासे भी आपको कुछ मतलब नहीं, तो भी आपके पवित्र गुणोंका स्मरण हमारे चित्तको पापके मैलोंसे पवित्र करता है । करके बताता है, क्योंकि पदार्थ अनेक धर्मवाळा न निन्दया नाथ विवान्त वैरे । है । यह स्याद्वाद सर्वथा एक धर्मवाला ही पदार्थ है । इसका निषेध करके किसी अपेक्षासे विधान करनेवाला है, इसीके ७ भङ्ग होजाते हैं । स्याद्वाद नय हीसे त्यागने योग्य व गृहण करने योग्यका ज्ञान होता है । जैसे आत्मा में अस्तित्व नास्तित्व दोनों विरोधी स्वभाव हैं, किंतु भिन्न २ अपेक्षा से हैं । इसलिये कहेंगे स्यात् अस्तित्व स्यात् नास्तित्व अर्थात किसी अपेक्षा से ( अपने ही आत्मा के द्रव्य क्षेत्र काल भावों की अपेक्षासे) आत्मामें अस्तिपना या मौजूदगी है तथा किसी अपेक्षा से ( आत्माके सिवाय अन्य पदार्थोंके द्रव्यादिकी अपेक्षा ) आत्मा में अन्य या नास्तित्वका अभाव है । यदि ऐसा नहीं मानें तो मेरा आत्मा अन्य आत्मा व अनात्माओं से भिन्न है ऐसा उपादेय ज्ञान नहीं होगा । (४) इसमें पदार्थों का स्वरूप एकान्त से एकांशी न बताकर अनेकान्तसे सर्वांशी बताया है। इससे आत्मा आदि पदार्थोंका यथार्थ स्वरूप कहा गया है | यही स्याद्वाद नयका सिद्धान्त है । स्याद् अर्थात् किसी अपेक्षासे, बाद अर्थात कहना सो स्याद्वाद है । कहा हैवाक्येष्वनेति द्योती (६) कर्मबन्धकी रीतियोंका लेखा बतानेवाला गम्यम्प्रतिविशेषकः । है । कर्मजड़ सुक्ष्म पदार्थ है । अशुद्ध भावों से आत्मा के साथ उनका बन्ध पड़ जाता है तथा वही बंध समय २ पर अपना फल दिखाता है, जिससे प्राणियोंको सुख दुख भोगना होता है । कहा है स्यान्निपातोर्थ योगित्वा तव केवलिनामपि ॥ १०३ ॥ स्याद्वादः सर्वधैकान्त, त्यागात्किं वृत्तचिद्विधः ॥ सप्तभंगनयापेक्षो, हेयोपादेयविशेषकः ॥ १०४ ॥ आप्तमीमांसा, समंतभद्रकृत । अर्थ- आप केवल ज्ञानियोंके मतमें यह स्यात् अवय सो वाक्योंमें लगाये जानेसे वस्तु अनेक खभावों को रखनेवाली है इसको झल जीवकृतं परिणाम निमित्तमात्रं प्रपद्य पुनरन्ये । स्वयमेव परिणमन्तेऽत्र पुद्गलाः कर्मभावेन ॥ १२ ॥ ( पुरुषार्थसिद्धयुपाय ) अर्थ-जीव किये हुए भावका निमित्त पाकर
SR No.543197
Book TitleDigambar Jain 1924 Varsh 17 Ank 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kisandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1924
Total Pages42
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Digambar Jain, & India
File Size7 MB
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