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________________ २१] दिगम्बर जैन । भार्या समाजी हिंदू संगठन बना रहे हैं और भारी भूक है, क्योंकि बाह्याचरणका अंतरंगसे शांतिके उपाप्तक हम लड़ रहे हैं। इस सम्बं- घनिष्ट सम्बन्ध है। धमें मुझे परिषदका यह कर्तव्य मालुम होता है बालकोंका संस्कार ठीक करनेके लिये उन्हें कि इस बातको छोड़कर अभीतक सुलह क्यों प्रारम्भमें धार्मिक शिक्षा अवश्य देनी चाहिये, नहीं हुई, परिषद्को एकवार पुनः सुलहके लिये अर्थ न समझनेपर भी श्री तत्वार्थ सुत्रजी, रत्न प्रयत्न करना चाहिये । और ४ व्यक्तियों का करण्ड श्रावकाचार भादि धार्मिक पुस्तकें स्टा एक ड्यपुटेशन बनाकर श्वेताम्बर समानके कुछ देनी चाहिये । फिर लौकिक शिक्षाके साथ भी शिक्षित व्यक्तियों के पास विचार परिवर्तनार्थ चाहे वह कहीं पढ़े घण्टा भाष घण्टा धार्मिक जाना चाहिये । श्वेताम्बर समाजमें भी सुलहके शिक्षाका प्रबंध अवश्य हो तभी वे धर्ममें श्रद्धालु इच्छुक व्यक्ति अवश्य होंगे। उनको तैयार और संयमी बन कर अपनी मात्माका कल्याण कर किया जावे कि वे अपनी समाजमें इस विषयका सकते हैं। यदि आत्म-कल्याण ही नहीं तो मान्दोलन मचावें, और फिर एक सुलह । सब बातें नि:स्सार हैं। कान्फ्रेंस हो। १५-अपने स्थानपर बैठनेसे पहिले मेरा . ११-सन्नारियों एवं सदगृहस्थों । अब मैं कर्तव्य है कि मैं स्वागतकारिणी समितिके आपके हितकी एक बात और कहूंगा । हम कार्याध्यक्षोंका आभार मानूं और उन्हें धन्यवाद लोग कुछ प्रमादवश और कुछ भिन्न मान्दो- दूं। किंतु विशेष कुछ कारणोंसे मैं इस कर्तकनोंमें पड़कर अपने समीचीन धर्मकी श्रद्धा व्यक व्यको अंतिम दिन अपनी क्लोजिङ्ग स्पीच और मर्यादाको ढीली कर रहे हैं। हमको अपने - (Closing Speech में अदा करूंगा। __ महानुभावो ! भान आपका बहुतप्ता अमूल्य धर्मपर दृढ़ रहना चाहिये । मुसलमानों की ओर ध्यान दीनिये, वे अपने धर्माचरणमें कितने समय मैंने लिया है इसके लिये मैं आपसे पक्के हैं चाहे जो कुछ भी क्यों न हो समयपर क्षमा प्रार्थी हूं मैं अपना परिश्रम सफल समझूगा पांचवार नमान पढ़ लेते हैं। उनकी नमानके यदि आप मेरे विचारोंसे काम उठावेंगे। समय कौसिलें तक स्थगित होनाती हैं। __ॐ- शांति ! शांति !! शांति .!!! हमको सबसे पहिले अपने धर्ममें अटल श्रद्धा जुगमन्दरदास । रखनी चाहिये इसीको सम्यग्दर्शन कहते हैं। इसकी सोलहकारण धर्म । शास्त्रों में बड़ी महिमा है । हमारा कर्तव्य है कि अभी ही नवीन छपकर दूसरीवार तय्यार हुआ । हम प्रतिदिन विधि पूर्वक देवदर्शन श्रावकके षट् है । इसबार इसमें सोलहकारणवा कथा व सोलह कर्म करें। (प्त व्यसन, पांच पाप और अम. भावनाओंके सोलह वैये मी बढ़ा दिये गये हैं। व क्ष्योंका त्याग करें । खानपान शुद्ध रखें यह कुछ बढ़ाया घटाया भी गया है । की.॥) समझना कि खानपानमें कोई धर्म नहीं है बड़ी मैने नर-दि. जैनपुस्तकालय-सूरत ।
SR No.543196
Book TitleDigambar Jain 1924 Varsh 17 Ank 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kisandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1924
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Digambar Jain, & India
File Size7 MB
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