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________________ भक ] दिगम्बर जैन पुण्य पापका अंश नहीं, जिन भावों में रागद्वेष मोही आत्मा अपने को कभी सुखी.कभी दुखी, नहीं, तथा जिन भावों में परपदार्थोके प्रति मोह कभी रामा. कभी रंक, कभी धनिक कभी निर्धन, नहीं, ऐसे माव ही निबंध भाव हैं, जैसा कि कभी पंडित, कभी मूर्ख, कभी गोरा, कमी काला, पं० दौलतरामनीने छह ढालेमें कहा है- कभी कुबड़ा, कभी सुडौल सुन्दर शरीरवाला, जहां ध्यान ध्याता ध्येयका न, कभी कांना, कभी लंगड़ा इत्यादि मानता है, विकल्प वच भेद न जहां। किन्तु यथार्थमें ये सब पुद्गलके रूप हैं, उसके चिद्भाव कर्म चिदेश करता, (आत्माके) नहीं। इसीसे वह अपने सच्चे सुखचेतना किरिया तहां ॥ को नहीं पाता । यदि यह सुख दुःख आदिकी तीनों अभिन्न अखिन्न शुध, मिथ्या कल्पनाको छोड़ ऐप्ता विचार करे, कि उपयोगकी निर्मल दशा। प्रकटी जहां हग ज्ञान वृत ये, मैं मुखी, दुःखी, गोरा, काळा, आदि कुछ भी तीन धा एकै लशा॥ नहीं हूं, मेरा स्वरूप तो सबसे निराला है, मैं उक्त भाव ही भास्माके सचे सुखकी प्राप्ति अखंड, अविनाशी, शिवपुरका वासी, चैतन्य करा सकते हैं। आत्मा ज्ञान-दर्शनमय, चैतन्य, भास्मा हूं, इस विचारसे वह अवश्य ही अपने अखंड, अमूर्ति, अविनाशी है। यह अनंतसुखी सच्चे मुखामृतके सागरमें निमग्न हो मोक्षका तथा अनंत वशका धारक चिदानंद, चैतन्य अधिकारी हो सकता है, बस यही आत्माका भावोंका भोक्ता है। यदि वह अपने चैतन्य सच्चा सुख है। रूपमें लीन होजावे तो वह सहज हीमें सच्चे ॐ शांतिः शांतिः शांतिः। मुखकी प्राप्ति कर सकता है, किंतु वह मिथ्या प्रेमचंद पंचरत्न मोहके कारण अपने स्वरूपकी पहिचान नहीं विद्यर्थी, दि. नैन विद्यालय-भिन्ड । करता, परपदार्थोसे स्नेह नहीं तोड़ता, रागढे संयक्तधान्तके-प्राचीन जैनस्मारक । पादि भावोसे विरक्त नहीं होता, और न अपने ब्रा सीतलप्रप्तादनी द्वारा संग्रहित इस ग्रंथमें आपको अपनाता, बस इसीसे वह अपने सचे संयुक्तपातके ३७ निलों के प्राचीन स्मारकका अपूर्व सुखका लाभ नहीं कर पाता। दिग्दर्शन है। मुख्य लागत मात्र सिर्फ छह माने । मिथ्या मोहके वशीभूत होकर यह आत्मा अपनी ना एक मंगानेवाले 12) के टिकिट भेनें। समाळकर पर परणतिको ही अपनी परणात शिर उडीसाके प्राचीन मान लेता है, जैसे शरीरके जन्मको अपना जन्म .. जन्म जैन स्मारक-इस ग्रन्थमें भी ब्रह्मचारीनीने और शरीरके नाशको अपना नाश । अथवा जो बंगाल विहार उड़ीसाके ५७ निलां के प्राचीन जैन राग, द्वेष, काम, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि स्मारक का दिग्दर्शन कराया है। लागत मात्र मू. प्रकट रूपसे जीवों को दुख देनेवाले हैं, उन्हीं की पांच आने एक मंगानेवाले !) के टिकिट भेजें ! सेवा करता हुआ अपने को सुखी समझता है। मैने नर-दि० जैनपुस्तकालय-हरत।
SR No.543195
Book TitleDigambar Jain 1924 Varsh 17 Ank 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kisandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1924
Total Pages34
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Digambar Jain, & India
File Size7 MB
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