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________________ १४ ] नहीं रहती । उसे इतना भी ज्ञान नहीं रहता कि मैं कौन हूं, और कहां पर हूं, तथा इस समय मेरी दशा क्या है । और तो क्या वह अपनी मां, बहिन, स्त्री आदिके पहिचानने में भी असमर्थ होजाता है, इससे वह उस समय अपनी मां स्त्री और स्त्रीको मां कहकर पुकारता है, किंतु जब उसका नशा उतरता है, तब वह अपनी मांको मां और स्त्रीको स्त्री समझता है । बस, वैसी ही हमारी दशा है । हमने अनादिकालसे मोह मदिराको पी लिया है, जिसका नशा हमको अभीतक घुमाये हुए है । इसी कारण हम अपने स्वरूपको मूलकर दूसरोंके रूपमें लुभा रहे हैं। जो पदार्थ अपने नहीं हैं उनसे ममत्व बुद्धि रखना हमारी मूर्खताका परिचय है । दिगम्बर जैन । [ बर्ष १७ दलवल देवी देवता, मातपिता परिवार | मरती विरियां जीवको, कोई न राखनहार ॥ परन्तु यह मोही आत्मा अपने आपको मूलकर उन्हीं नाशवान पदार्थोंको अपना मानता है यह उसकी बड़ी भूल है । ore हमको विचार करना चाहिये कि जब आत्माके साथ घन, कुटुम्ब आदि कुछ भी नहीं जाता, तो फिर उसके साथ जाता क्या है ? इसके सम्बंध में इतना ही कह देना उचित होगा, कि आत्माका किया हुआ पुण्य वा पाप ही उसके साथ जाता है, इसके सिवा आत्माके साथ और कुछ भी जानेका नहीं यह जैनद्धांतका कथन है । अब यह निश्चय हो चुका कि केवल पुण्य और पाप ही हमारे आत्माके साथ जा सकते हैं इस आधारपर यह कहा जा सकता है कि केवळ पुन्य कार्य ही किये जावें और पाप कार्यों का त्याग किया जाय जिससे हमें इस लोक तथा परलोकमें सुख प्राप्त हो किंतु हमारे आचार्योंने इस सम्बन्धमें ऐसा कहा है कि पुण्य और पाप दोनों ही कर्मबंधके कारण है और कर्म बन्ध ही संसार परिभ्रमणका मुख्य कारण है । सोही पं० दौलतरामजीने कहा हैपुण्य पाप फल मांहि हरख विलखो मत भाई । यह पुल पर्याय उपज विनसे फिर थाई ॥ यह प्रत्यक्ष देखने में आता है कि जब कोई आत्मा अपने वर्तमान शरीरसे मुक्त हो नबीन शरीर में प्रवेश करता है तब उसका सब ठाटवाट यहीं पड़ा रहजाता है । उसके साथ और कुछ जावेगा ही कहांसे, जब कि उसका पौद्धिलक शरीर भी उसके साथ नहीं जाता जिसको उसने बड़े लाड़ प्यारसे पोषण किया था तथा जिस बनको उसने बड़े परिश्रमसे कमाया था, बह भी जहांका तहां पड़ा रहता है, और उसने जिस कुटुम्बके हेतु अनेक पापोंसे धन संचय किया था वह भी उसके साथ नहीं जाता । कहने का तात्पर्य यह कि मरते समय आत्माका कोई भी साथी नहीं होता, और न कोई उसे मरनेसे बचा सकता है । बही कविवर भूधरदासजीने कहा है प्यारे आत्मन् ! तू कर्मबंध से तभी छूट सकता है, और तभी ही मोक्षके अनंत सुखको पा सकता है, जब तू अपने आपमें निबंध भावको स्थान देवे, क्योंकि निर्बंध भाव ही तुझे मोक्ष प्राप्ति में सहायक होंगे। जिन भावों में
SR No.543195
Book TitleDigambar Jain 1924 Varsh 17 Ank 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kisandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1924
Total Pages34
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Digambar Jain, & India
File Size7 MB
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