SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 22
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०] दिगम्बर जैन । [ वर्ष १७ बनकर अपने दोषोंसे ही उसकी इस स्वर्गतुल्स हिन्दुनातिकी रक्षा उन मार्य महर्षियों के मार्गका भूमिको नरकके समान बना दिया है। अवलम्बन करनेसे ही होसकती है, अन्यथा अनियमित रूपसे इन्द्रिय-सेवनके द्वारा उ. किसी प्रकार भी नहीं होसकती । भाजलके त्पन्न हुमा महापाप मानकळ विकट रूप धारण मनुष्य किस प्रकार उत्तम वृक्ष उत्पन्न होगा, करके समस्त जगतको प्रसनेका प्रयत्न कररहा किस तरहसे घोड़ा अच्छा होगा और किस है। इस महापापकी अधिकतासे ही गाजा प्रकारसे कुत्ता अच्छा होगा इत्यादि बाह्य पदामनुष्य समान मीर्ण-शीर्ण, रोगी और समवमें थोकी उन्नतिका विचार किया करते हैं; किंतु ही वृद्धावस्थाको प्राप्त झेर मृत्युके मुख प्राचीन कालके महात्मा पुरुष पहले इस बातका पतित होता जारहा है। हिन्दूनातिके वर्तमान विचार करते थे कि किस प्रकारसे उत्तम संतान अधःपतनका एकमात्र प्रधान कारण अमित और उत्पन्न होगी ? और वे केवक विचार करके मवैध इन्द्रिय सेवन करना ही है। ही नहीं रहनाते थे; बरिक वे सहवास संबंधी यदि कोई मनुष्य अपनी सन्तानको वास्तविक सैकड़ों, हनारों प्रकारके कठिन नियमोंका भी सुखी, दीर्घजीवी, आरोग्य, बुद्धिमान् बौर धर्म- पालन करते थे। वान देखना चाहे तो उसको मर्भाधान संस्कारसे सहवासके सम्बन्धमें मार्य महर्षिण निनर पूर्व पवित्र मन और पवित्र भावसे उपयुक्त नियमों की व्यवस्था करगये हैं और आजका समय (अर्थात् ऋतुस्रावके चार दिन बाद ) में लके बड़े बड़े पाश्चात्य विज्ञानवेत्ता पण्डितोंने सहवाप्त करना चाहिए। यदि पुत्रको पवित्र, उन व्यवस्थाओंके विषयमें जिन वैज्ञानिक उनत भावापन बनाना हो तो सबसे पहले अपने तत्वोका भाविष्कार किया है, हम उन्हींकों भापको उन्नत बनालेना चाहिए, पश्रात पुत्रो- यहां संक्षिप्त रूपसे वर्णन करते हैं, आशा है त्पादन करना चाहिए । मार्य महर्षियोंका एक कि पाठक महोदय इन समस्त तत्त्वोंको विशेष मात्र मादेश है कि-शास्त्रोक्त विधिके अनुसार ध्यान देकर पढ़ेंगे। प्रथम ब्रह्मचर्य व्रतका पालन करना चाहिए और चरकसंहिताके शारीरस्थानके मातिसूत्रीय फिर सन्तान उत्पन्न करनी चाहिए। विद्या, अध्यायमें महर्षि मात्रेय कहते हैं:तपस्या, इन्द्रिय संयम मादिके द्वारा रेतः संयम “ स्त्री पुरुषयोरव्यापनशुक्रशोणितयोनिगकरके प्रथम अपने में मनुष्यता प्राप्त करनी चाहिए र्भाशययोः श्रेयसी प्रजामिच्छतोस्तानतिफिर दुसरेको मनुष्यत्व प्रदान करने यत्न करं कम्मोपदेष्यामः ।" करना चाहिए। वीर्यरक्षा ब्रह्मचर्य व्रतका एक अर्थात् जब स्त्री और पुरुषका शुक्र, शोणित प्रधान अंग है । इस वीर्यरक्षाको ही मार्य (डिम्ब ), योनि और गर्भाशय किसी प्रकामहर्षियोंने जीवन का सबसे प्रधान कार्य बतलाया रके दोषसे दृषित न हों तब उत्तम सन्तान है। वर्तमान काल में हमारा पुनरुत्थान और प्राप्त करनेकी इच्छा करनेवाले उन स्त्री पुरुषोंको
SR No.543195
Book TitleDigambar Jain 1924 Varsh 17 Ank 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kisandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1924
Total Pages34
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Digambar Jain, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy