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________________ AN दिगम्बर जैन । [ वर्ष १७ हमारे यहां भी अन्य देशों के विद्वान् लोग जायगा। इसमें संस्कृत पर कोई आक्षेप नहीं पधारते और हमारी शोभा बढ़ाते। किया जा रहा है। संस्कृत तो दस बीस पण्डित- इस समय भारतके प्रान्तरमें ईसाइयों के स्कूल जन ही समझ सकेंगे मगर हिन्दीसे हजारों और कोलिन खुले हैं जहां वे अपने धर्मकी लाखों मनुष्यों को लाभ होगा। समय तथा देशकी - शिक्षा देते हैं। मुसलमानों का विश्वविद्यालय दशाको देखकर कार्य करने में सफलता प्राप्त अलीगढ़ में खुला हुआ है जहां मुसलमानी मत होती है। संस्कृत तो जैन सिद्धान्तकी प्रारम्भिक की शिक्षा दी जाती है। काशीमें हिन्दुओंका भाषा भी नहीं है। अधिकांशमें जैन ग्रंथ प्रारूत विश्वविद्यालय है जहां सहस्रों विद्यार्थी धर्मशिक्षा भाषा ही में लिखे गये हैं निससे वर्तमानकालमें पाते हैं । जैनियों के विश्व विद्यालय अभावरूप बहुत कम आदमी जानकारी रखते हैं। संस्कृतदेशमें ही हैं अर्थात् कहीं नहीं हैं । क्या यह की रक्षा भी अनुवादोंमें संस्कृत मूळके देने द्वारा अत्यन्त दुःख की बात नहीं है? मैं आशा करता भले प्रकार हो जायगी। है कि इस अवसरपर आप सज्जनवृन्द इस अब केवल एक बात कहनेको शेष रही है जो मावश्यकीय प्रार्थनाकी ओर ध्यान देंगे। अति आवश्यकीय है। मापने "वीर" के फरएक और आवश्यकता इस बातकी है कि निसको । रीके अंकमें पढ़ा होगा कि मैनपुरी निलेमें मैं अनुभव कररहा हूं और मेरा विचार है कि कि शिकोहाबाद जंकशनसे १० कोसकी दूरी पर भाप महानुभावोंने भी अनुभव किया होगा कि महावीर भगवानकी एक विशाल मनोज्ञ प्रतिमा समस्त शास्त्र प्रचलित भाषा अर्थात हिन्दी में ४॥ फिट ऊँची किसी मठमें विराजमान है और लिखवाये जायें ताकि प्रत्येक व्यक्तिको उनके जखें'टेयाके नामसे इस पर सहस्रों पशुओंका अवलोकन तथा समझने का अवसर प्राप्त हो। बलिदान चढ़ाया जाता है। यह महाभीषण बिना समझे शास्त्रोंका पाठ केवल तोता-रटन्त अत्याचार है जिसको सुनकर प्रत्येक व्यक्ति , है जिससे विशेष काभकी आशा करना बालू में से शोकातुर हो जायगा। निःसन्देह उपस्थित तेल निकालने की आशा करना है। यह कार्य सज्जनगण इस विषय पर भी उचित विचार करेंगे। एक संस्था द्वारा होना चाहिये ताकि अनुवाद ___इन. थोड़ेसे शब्दोंके साथ मैं होस्टेलकी ओरसे करते समय सब बातोंकी ओर ध्यान रक्खा आपके शुभागमन पर कृतज्ञता प्रकट करते हुये जाय कि पहिले किन किन शास्त्रोंका अनुवाद प्रार्थी हूँ कि आप महानुभावोंके खागत तथा कराया जाय, भाषा जैपुरी मरहठी हो किन प्राथा है - सेवामें जो त्रुटियां रह गई हों उनके लिए हमको हो, किप्त बुद्धिमानको कौन कार्य सौंपा जाय सेवा ". क्षमा कीनिये और इन बच्चोंकी प्रार्थना तथा इत्यादि इत्यादि । इस उपायसे आगामी ममयमें । आवश्यकताओं पर ध्यान देकर इन कृतज्ञ पज्य जिनवाणी और शास्त्रभण्डारकी रक्षा होगी कीजिये ताकि आगामी कालमें यह विधिपूर्वक और साधारण जैनियों तथा जनताको धर्मका आपका हाथ पॅटाने में समर्थ हो सकें। स्वरूप भलेपकार जानने का अवसर प्राप्त हो ॐ शान्तिः ! शान्तिः !! शान्तिः !!!
SR No.543195
Book TitleDigambar Jain 1924 Varsh 17 Ank 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kisandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1924
Total Pages34
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Digambar Jain, & India
File Size7 MB
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