SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 15
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अंक ५] दिगम्बर जैन । मिलेगा ? बिना प्रतिष्ठाके धर्म पालना भी ने कतर डाले। जो ग्रंथ बच भी गये वह इसी दुस्तर होगा। कारण कि मान्यताहीनके धर्मका प्रकार कि उनकी पूना तो सम्भव हुई परन्तु कौन आदर करेगा ? गत सहस्र वषोंमें जो उनके अस्तित्वसे और कोई विशेष लाभ लोग बाधायें जैनियोंके सन्मुख आई वह इसी कार- नहीं उठा सके । जिन महाशयोंने नवीन ग्रन्थ णसे तो उत्पन्न हुई थीं कि लोग उन्हें व उनके लिखे वह भी एक या दो ही विषयों पर लिखें। धर्मको घृणाकी दृष्टिसे देखने लगे थे यहां तक जिन वाणी और शास्त्र ज्ञानकी महिमाका संकोच कि जैनी नास्तिक मान लिये गये । हिन्दुओंमें ही केवल गत १००० या १५०० वर्षों में तो यहां तक घृणाकी सीमा बढ़ गई कि उनमें नहीं हुमा परन्तु इसके पढ़ाने व समझानेका यह. कहावत प्रसिद्ध हो गई कि " यदि मत- ढंग पूर्वकालमें कुछ ऐसा अनोखा था कि अन्य वाला हाथी भी किसीको मारता हो तो जैन धर्मियोंके हृदयों पर धर्मकी श्रेष्ठताकी छाप मंदिरका आश्रय ग्रहण करने के स्थानपर मर पड़नेके स्थान पर यही बात अंकित होगई कि जाना अच्छा है।" यह किस समयका वृत्तांत जैनधर्म निकृष्ट है । वाह, किस उत्तमताके साथ है ? क्या उस समयका जब कि अंगरेजी पढ़े सर्वश्रेष्ठ सर्वोत्तम धर्मका प्रचार किया गया था। लोगोंने धर्मविरुद्ध तर्कणा करके अपने क्षुद्र किस खूबीसे धर्मकी रक्षा की गई थी। बजाय विचारोंको संसारमें फैला दिया था ? नहीं ! इसके कि धर्मका प्रभाव बढ़े वह प्रभावहीन वरन् उस समयका है जब कि अंगरेजी भाषाका हो गया। मैनी नास्तिक बुतपरस्त जगतमें प्रसिद्ध माविष्कार भारतवर्षकी भूमिपर नहीं हुआ था। हुये। तर्क वितर्कमें भी स्याद्वादका डंका कहीं वस्तुतः यह सिद्ध है कि गत समयमें जो घृणा कहीं तो अवश्य बना, परन्तु अधिकांश लोगोंने जैन धर्मके लिये लोगोंके हृदयोंमें उत्पन्न हो उसको भी पाखण्ड व झूठ ही समझा । क्या गई थी वह उन्हीं महानुभावोंकी बिद्या या यह जैन बुद्धिमानोंके समझानेकी त्रुटि नहीं थी? कृतियों का परिणाम हो सकती है जो संस्कृत सांसारिक ज्ञान तथा कलाकौशलकी ओर अथवा धर्मके रक्षकके स्वरूपमें उपस्थित ध्यान देते हुये खेद उत्पन्न होता है । जब कि पश्चिमी जातियां निद्राको त्याग दिया तथा गत एक सहस्र वर्षों की कारगुज़ारी पर यदि कलाकौशल अर्थात् हुनरों में उन्नति कर रही थी ध्यान दिया जाय जब कि अंग्रेन व अंग्रेजी हम लोग बराबर गहिरी निद्रामें अचेत होते भाषा भारतवर्षसे ७००। श्रीलकी दूरी पर थे जाते थे । भाविष्कार और खोज तो चीज ही तो नेत्रों में आंसू भर । । हैं। कितना धर्म और है। हमने तो जो कुछ विद्या और ज्ञान विज्ञानका नाश उस सर में हुआ। गंधहस्ती पूर्वजोंको ज्ञात थे उन्हें भी नष्ट कर दिया । महाभाष्य जैसे महान पूज्नग्रंथोंका लोप होगया। मैं यहां एक ही दृष्टांत पर संतोष करूंगा। सैकड़ों शास्त्र दीमकोंने चाट लिये, सहस्रों चूहों: जैन पुराणों के अवलोकनसे ज्ञात होता है कि होते हैं।
SR No.543195
Book TitleDigambar Jain 1924 Varsh 17 Ank 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kisandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1924
Total Pages34
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Digambar Jain, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy