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ENOPAROK
(११) दिगंबर जैन ।
॥ लावनी॥ धर्म भूक आचरण विगाड़ा, इसका हेतु नहीं रहा इदम् । विवेक जाता रहा हिये से, सबकी झूठी पीये चिलम ।। १ ।।
प्रथम तम्बाकू महा अशुचि है, म्लेछ इसको बनाते हैं।
छूने योग्य नहीं बर कुलके, आने तोय लगाते हैं । ठंडी चिलममें धूम योगते, जीव असंख्य बताते हैं। पीते ही मर जांय समी पह, जिन श्रुतीमें गाते हैं ।
होती इसमें अपार हिंसा, जरा दया नहीं भाती गिलम् ।
विवेक जाता रहा हियेरे, सबकी झंटी पीये चिलम् ॥ २॥ कौम रनीलोके साथ, पीते हैं गई अबरू यह क्या बनी है ? हया दूर कर धर्म लनाते, उन्हीं में जानेकी मत सनी है ॥
बह चर्म गांना पीये पिलायें, उसीने बुद्धि यह तेरी हनी है।
सांस प्रगटकर बदन मछता, प्राण हरनेको यह हरफनी है ॥ लंगाना दमका बहुत बुरा है, पीते तन में पडे खिम् । विवेक जाता रहा हियेसे, सरकी झूटी पिये चिरम ॥ ३॥
थावर अस करि सहित मरा जछ, कुवाहका यह निधान हुक्का ।
मुतोय पड़ते सुनीव मरते, हैं पापका यह निषःन हुक्का ॥ रोग भिन्न होनाय कहें नर, पीते हैं हम यह जान हुक्का। । शुद्ध औषधि करो ग्रहण तुम, अशुचि जान करियो दूर हुक्का ॥
सीख सुगुरुकी यही रूपचन्द, त्यागो जल्द मत करो विलम् ॥ .
विवेक जाता रहा हियेसे सबकी झूटी पीये चिलम ॥४॥ .. और देखिये:
॥कविता॥ जहरकी सास दुष्ट दुलही हलाहलकी।
बीछीकी बहिन पर पंचरूप सानी है। नानी करियारेकी धतूरेकी ममानी, पीतियानी ।
बच्छनागकी नहानमें विरानी है ॥ कहे गंगादत वह बचावे धन्य प्राणी।
भो अफीमकी जिठानी विष खोपरेकी आजी है॥ माहुरकी मौसी महतारी सींधियाकी ।