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________________ 26666566SESECE FEGE धूम्रपान निषेध | ९ ) दिगंबर जैन । ००० दया उठ जाती है । यह एक बड़ी गंदी आदत है । महात्मा टॉल्स्टॉय "लोग नशा क्यों करते हैं" शीर्षक लेखमें लिखते हैं कि: 56663652EEEEEEE6666666 ( ले० - आर. टी. लाल जैन - फुलेरा ) प्रायः सभी जातिके मनुष्य किसी न किसी रूपमें धूम्रपान करते हैं । इस ही कारण से हमारे भारतवासी दिन प्रतिदिन आळसी, पुरुषार्थ हीन एवं दरिद्री होते जा रहे हैं। आजकल के नवयुवा पहिला शौक बीड़ी (चुरुट) व सिगरेट पीना ही है | बिना सिगरेट व बीड़ीके पं. ये तो वह अपनेको नेंट?मैन (सभ्य पुरुष ) ही समझते । यह सच ही मानते हैं कि तम्बाकू, बीड़ी, एवं सिगरेट इत्यादि मादक पदार्थ शरीरको किसी न किसी रूप में हानिकारक है । नहीं ग्रामीण मनुष्यों ( देहातियों) में अधिकतर हुक्का पीनेका ही रिवाज (रहम) है । यह प्रथा देहातियों में भी दिन प्रतिदिन ताकी पाती ना रही है। यहां बच्चे व बूढ़े सब ही हुक्का पीते हैं। इसलिये देशा छोटे छोटे गांवों) में इस 'प्रथाको रोकना अत्यावश्यक है । धूम्रनसे विवेकबुद्धि नष्ट होती है । और एक तरह से यह मद्य से भी खराब है । क्योंकि इसका असर पड़ा हुआ मालूम नहीं होता। यह ऐसी लत है कि जिसके एक दफा भी लग गई, बस फिर तो उसका छूटना ही दुःसाध्य होगया । इससे मनुष्य के पहले खर्चेकी मी एक बड़ी भारी रकम बन जाती है। इसे धान खराब होना है। मुंह में दुर्गंध आने लगती है, दांत . मैले होजाते हैं। मन मलीन होजाता है । हृदयसे "तम्बाकू पीनेवालों का यही खयाल है कि इससे ( तम्बाकू) चित्त प्रसन्न रहता है, दिमाको साफ करती है और यह शराबकी तरह विवेक बुद्धिको भी निकम्मी नहीं करती है । परन्तु तम्बाकू पीने की विशेष इच्छा जिस हालत में होती है, उप हालतको जरा सावधा नीसे देखिये, आपको विश्वास होगा कि शराब से विवेकबुद्धि पर जो असर पहुंचता है वही भसर तम्बाकूसे मी होता है। जब विषेक बुद्धि मारने की जरूरत पड़ती है, तब लोग जान बूझकर बेहोश होने की इस क्रिशको (तम्बाकूको उपयोग में लाते हैं । यदि तम्बाकू सिर्फ दिमाग साफ करती, या मन प्रपन्न करती तो मनुष्यको उसकी तलफ इ. नी न सताती । लोग यह न कहते कि " एक वार रोटी न मिले तो न सही, पर तम्बाकू विना काम नहीं चल सक्ता उस बावर्चीने जिसने अपनी मालकिनका खून किया था अपने इनहार में कहा था कि "जब मैं अपनी मालकिनके सोनेके कमरे में कर गले में छुरा भोंक दिया तब वह जमीनपर लेट गई । और उसके गले से खुनकी धार बह चली, बस मेरी हिम्त्रत जाती रही और उस समय मेरे हाथ उसका तमामं न हो सका । तब मैं फौरन दूसरे कमरे में गया और वहां बड़ी देर बैठ मैंने एक सिगरेट पीयी । सिगरेट पीकर वह उस शयनागर में पहुंचा और उसने वह काम पूरा कर डाला | "
SR No.543190
Book TitleDigambar Jain 1923 Varsh 16 Ank 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kisandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1923
Total Pages38
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Digambar Jain, & India
File Size10 MB
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