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________________ ( २५ ) दिंगबर जैन । हजूरी-जो हुकम हजूरका ! वृद्धिसे काम लेना न जानते हों, धर्म और (ऊपरनी वातचीत पछी शु थयु ते आपणे कर्पके यथार्थ मर्मसे भिज्ञ न हों और सौम्य जाणता नथी, पण एक "थीओसोफीस्ट" सज्जन सत्यता एवं पवित्र निष्पक्षताके अगाड़ी धन और कहेछे के भा बनायने पांचसो वर्ष थी गयां छे, बसर मोहित होना न जानते हों। नैन समा. तेथी ते वखतना दिरहीना लोको तेमनी अधुरी ममें इन सब बातों की कमी है। आने घर्षका रहेली सहकारनी वासना तृप करवाने सारु हाल आघापद्ध। ज्ञान उन्हें ऊंचे उठानेके स्थानपर जन्म्या छ भने ते राना तथा तेना कार्यवाहकोए नीचेको गिरा रहा है। उधर पढे लिखे धके हालना सहकारना प्रवर्तक नेताओनो जन्म जानकार विद्वान् व धनवान आपसी श-नमानमें लीधो छे. ते वखते तार, टपाल, छापखाना, पस्त हैं तो घर विचारे अधिकांश धर्मकै उच्च. भागगाडी विगेरे बीजां साधनो न हतां, तेथी मावोंसे अनभिज्ञ जनसमुदाय और भी बुरी तेमनी पाखी दुनिभामा सहकार फेसावधानी इच्छा तरह अपने जीवनकी उत्तमता और उत्कृष्टताका तृप्त थाय तेम नहोतुं, तेथी जे वासना रही अन्त कर रहे हैं। दोनों ओर बेसुधी बेखुदीका गएली तेनी हालनां साधनो द्वारा सहकार फेलावी बाजार गरम है । लेकिन कोई भी मनुष्य इस तेभो तृप्ति करे छे !!) कोटिमें हमारे धर्मके ज्ञाता मनुष्यों-सज्जनोत्तम हरजीवन रायचर शाह-आमोद. मनुष्यों को विशेष अपराधी करार देगा। मझ्या गिरिकी समीरमें यदि सरस सुगन्धं न हो तो वह किस कामकी | जहां वह हो वहां अपने ee * वीर-विचार! अड़ोसीपड़ोसीको भी अपने जैसा न बना सकी तो उसकी सत्ताकी क्या आवश्यक्ता ? *** BY दिल्लीकी बिम्बप्रतिष्ठा के मेले पर यह दृश्य देखती (लेखक बाबू कामताप्रसाद मैन, अलीगंन) हुई आंखों के सामने था। यहां जैनप्तमानकी आमनुष्योंके आचारविच र ही उस देश और धुनिक अवस्थाका ख मा चित्र बड़ी ही खूबीसे जातिकी आदर्शताको बतलानेवाले होते हैं। जिस दिखाई पड़ रहा था, चाहे शारीरिक दृष्टिले देश व नातिके वे निवासी वा अङ्ग हों और चाहे धार्षिक अथवा किसी भी दृष्टिसे . देखा जा किसी भी धर्म, किसी भी जाति, किसी मी सक्ता था । बों, स्त्रियों और युवकोंके मुखों कौमकी किसी तरहकी भी उन्नति होना उस पर उनकी अवस्थानुपार लोन और ते नकी अवस्था तक असम्भव है जबतक कि उत्त देश कमी पर बनावटी शृंगार उनके शारिरीक हासको व जातिके मनुष्यों में वास्तविक ज्ञानकी विवेक- दिखा रहा था । कारमान शत्रु मा न होने शक्ति अपना प्रकाशन फेला रही हो और देनेकी नौरत न पहुंने दे॥ --तमाशबीनीमें, मनुष्य मांख खोलकर अपनी विवेक विचक्षण शैरगर्दी में अपने समयको विता देना उनको
SR No.543187
Book TitleDigambar Jain 1923 Varsh 16 Ank 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kisandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1923
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Digambar Jain, & India
File Size10 MB
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