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________________ - दिगंबर जैन । उनके धर्मके प्रति प्रेपको दर्शा रहा था-अज्ञान- और फिर यदि इससे मी कहीं बच गया तो तममें पड़ा हुभा जतला रहा था । और विद्वान ज्योनार पूनापाठ करके नाम कमाना चाहिए । व धर्मके ज्ञाता - मनुष्प इधर कोरी शानमानमें क्या वह कि हम अपने धर्मके उद्देश्योंका थे कि जिप्ससे तेरा तीन होते वने । यही हालत ध्यान करें, जातिकी दशाका विचार करें और हरएक जगह जैनियों में में जूद है । बात यह है उ. का ज्ञानतम मेटनेके प्रचारका उपाय करें ! वह अपने धर्म के मर्मसे नावाकिफ हैं। नैन- पर यहां तो है शानगुमान और अपना मतलब ? ध के सिद्धांतोंके अनुसार चलकर यदि हम कैसे अनोखे जैनी आज हम हैं ! वहां जैन अपने जीवन के दैनिक कार्य कर तो हमारे न धर्मका सिद्धान्त ! कहां वीरप्रभूका उपदेश कहां, उतना पापका बन्ध हो और न हमारी हारत हम ! उतनी खराब हो नितनी कि हो रही है । अपने वीर-धर्मके माननेवाले प्यारे वीरो ! विकार धर्मके सर्व प्रथम माव-अहिंसाभावका ध्यान रख- कीजिए ! विश्वास कीरिए ! वीरकी वाणीको नेसे हममें प्रेमका प्रचार होने लगे जिसकी आव- विवेकबुद्धिसे ग्रहण कीजिए । आपका धर्म श्यक्ता आजकलके जमाने में सबको मालुम पड़ सिखाता है कि पुद्गल अनादि है। वैसे ही जीव रही है। और शक्ति के प्रथकत्वके स्थानमें एक- भी सदैव रहने वाला है । जीवका गुण चेतना स्वको प्राप्त होनेसे सब कुछ सध सके । पर ऐसे (देख ना जानना) है । जीवनमें मनुष्यका वर्तव्य हो कैसे ? हमारी हिंसा बहुत अंशों में अब यह होना चाहिए कि वह आत्मामें शक्ति और शरीर और पद्दल तक सीमित हो गई है। शांतिकी उन्नति करे । इस कारण प्रत्येक जीवको अहिंसाके यथार्थ भाव हमसे कोसों दूर हैं। हम अपनी आत्मोन्नति करनेका सर्वाधिकार स्वयं किसी भी मनुष्यको किाना भी मानसिक दुःख प्राप्त है। किसी भी जीवको विसी भी दूसरे क्यों न २-वेशक अपने मान कष.यों के वर्श भूत जीवकी किसी तरहकी आत्मिक, शारीरिक व होकर-पर वह हमारे निकट सिा नहीं है। लौकिक उन्नतिमें बाधा डालनेका स्वत्व प्राप्त हिसा वेवल किसी कीवकी मृत्यु करने का नहीं है। हां ! यह अवश्य है कि उन सब शारीरिक कष्ट देने में ही समझी जाने हगो है। जीवों को जो विसी मी ताहकी योग्य उन्नति बातोंसे कृत्योंसे किसी के दिलको वितना भी करना चाहते हैं, अपनी उन्नति अपने आप करने सताऐं-कितना भी दुख ऐं-यहां तक कि जिप्तके देना चाहिए। यदि हो सके तो हमारा यह कारण उसके प्राण इतने क्लिष्ट हो जाएं कि दम कर्तव्य होना चाहिए कि उनके कार्यों की राहे ठों पर आनाय १२ उसमे हपको तनिक मी ना करके उनके उत्साहको बढ़ाते रहें अथवा हिंसाकी वू नहीं दिखाई देगी ! हमारा मतलब जो विशेष ज्ञानके धारी हों उनका यह धर्म सघना चाहिए । हापा कमाना चाहिए । उसे होना चाहिए कि यदि वे सन्मार्गसे विमुख हैं सामाजिक नोंकचों में खून खर्च करना चाहिए। तो उनका वह भ्रप अति नम्र हो प्रेमके साथ
SR No.543187
Book TitleDigambar Jain 1923 Varsh 16 Ank 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kisandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1923
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Digambar Jain, & India
File Size10 MB
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