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________________ दिगंबर जैन | accom ( १४ ) आपणो प्राचीन सहकार । ( दंतकथा उपरथी ) कडो वर्ष पहेलां दिल्हीमां हिंदु राजाको पछी मुसलमानो राज्य कर्ता हता. दिल्ही शहे.. रनी बस्ती ते बखते लाखोनी संख्याथी गणाती, समृद्धि पण लाखोथी अंकाती हती. अग्र वाल जैनोनी वस्ती ते वखते ए शहरमा एक लाख घरनी हती एम कहेवातुं हतुं. एकवार अग्रवाल जैनोनो वरघोडो मोटा ठाठमाठथी नीवळयो हतो. नवा मुख्य माणसो हाथी घोडा अने पाखीओनां वाहनोमां बैठा हता, तेमनो पोषाक अने घरेणां रजवाडाने छातां तां तेथी तेभो बचाए ठाकोरो होय एवा देखावा हता. आ| वरघोडो जोवाने भाखुं शहेर हळपली रह्यु हतुं. भने ते बात छेक रामाना कान सुधी पहोंची गयेही होव यी राजा पोते पण वरघोडो जोवाने माहेर जग्या उपर बिराज्या हता. एक लाख मुख्य माणसो, तेमनां एक लाख वाहन, तेनो ठ'ठमाठ अने ते लाख माणसोनो कुटुम्ब परिवार (स्त्रीओ तेपन पुत्र पुत्रीओ) सघळु भोईने राजाने विस्मय थयुं भने भ्रांति थई के आ सवळ सामान्य माणसो छे के जागीरदार - ठाकोरो छे ? तेथी तेमणे पूछयुं. ए "यह सरवत किनका है ? " हजूरी - धनियेका । बादशाह - सबके सब बड़े मालदार दिख पढते हैं ! हजुरी - हां साब ! ऐसा ही है । बादशाह - क्यों सब ठकराछे हैं ? हजूरी-जी नहीं हजूर ! सत्र व्यापारी हैं। बादशाह - व्यापारी होवें तो कोई गरीब होवें, कोई तवंगर होर्वे, सब ऐसे एक सरीखे मालदार किस तरहसे हो सकते हैं ? बिना जागीर, बिना टकराई इतना ठठारा किस तरहसे एकता हो सकता है ? हजुरी- नहीं जनाब ! इनकी पास न तो कोई जागीर, और न तो कोई उकरात है । राजा - तब इनका क्या मायना होना चाहिये ! हजुरी - जहांपनाह ! इनका मायना इनकी जातिका रस्म है ! और वह रस्म ऐसा है कि जब कोई अग्रवाल किसी न किसी कारण से गरीब हो जाते हैं और घरबार रहित हो जाते हैं तब इनकी जातिके एक लाख घर हैं वे सब घरवाले एक एक रुपया देते हैं और एक एक मटीकी ईंट उस गरीब आदमी को देते हैं ! और वह आदमी इंसे घर बन्ध ते हैं और रुपिये से लक्षाधिपति होते हैं इसी तरहसे सब "अगराले ठकराले" बन जाते है ! यह चमत्कार इनका सहकार का है ! बादशाह - बडी भजनकी बात ! बनियेकी बडी अक मंदी ! और बडी विद्या ! अच्छा, ऐसा है तो "अगराले सब ठकराले" इनमें कुछ सन्देशा नहीं वाह वाह सहकार वाह सहः कार ! अच्छा, तो कलसे अपनी सारी जाति में आदमजहान में बादशाह - ये कौनसे बनिये हैं ? हजुरी - महाँपना ! यह " अग्रवाल जैन" कह और सारे शहेर में और सारी - छाते हैं । ऐसा सहकार बनादो ।
SR No.543187
Book TitleDigambar Jain 1923 Varsh 16 Ank 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kisandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1923
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Digambar Jain, & India
File Size10 MB
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