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________________ ७१ __ अंक १] > दिगंबर जैन. AR सोच कर लड़का तो बड़ा है और उम्रमें है। उसके बापने उसके लिये जन्मभरको भी कोई ५०-५५ बर्षका होगा। पर कांटे खड़े कर दिये हैं । हाय ! जावै इनका इससे कोई अपनेको मतलब नहीं! अपने सत्यानाश जो लोभके पीछे अपनी बेटीके पास तो रुपये पूरे आवेंगे, अच्छी बात है।) गले में फांसी डालना चाहता है। जानता अच्छा, पक्की कर दो पर यह तो बताओ पूछता अपनी बेटीको कुएम ढकेल देता रुपये कितने देवेंगे?" है । हाय ! चन्द्रकला ! तेरी तकदीरने लोढ़ामल:-"आपके मुंह मांगे दाम । मैं - बड़ा धोका दिया। हाय ! धिक्कार तेरे बापको जो अपनी बेटीका तथा अपना आपसे यह भी कहता हूं कि आपकी भला बुरा नहीं सोचता । हाय ! अभी तो लड़की वहां सुख पावेगी।" कुछ भी नहीं बिगड़ा-देखो कोई इनको किसनचंदः-"अच्छा, तो पक्की कर समझाता है या नहीं। देखो क्या होता आओ । पर यह बात अभी गुम रखना, है? सच है "जो होना है सो होकर रहेगा।" किसीको मालूम न होवै। ___ लोढामल:-"नहीं जी ! आप कैसी प्रिय पाठको ! अबसे हम किसनचंदको बातें करते हैं ? क्या मैं नासमझ हूं ?" लोभीके नामसे लिखेंगे । और देखिये ! प्रिय पाठको ! दौनों तर्फसे सगाई पक्की रतनचंदकी भी क्या बुद्धी भ्रष्ट हुई है कि हो गई। दोनों तरफ ब्याहकी तैय्यारियां वह ऐसा फैय्याजी बना कि अनर्थ करने होने लगी। लोढ़ामल भी अपनी मूंछोपर तक पर भी उतारू हो गया। और यह ताब देने लगे और कहने लगे कि विना न सोची कि मैं अपने धनको परोपकारमें कुछ तकलीफ के अपना काम बन गया। लगाऊं, जिससे मेरा कल्याण हो । यह सब बातें चुपचाप ही होने लगी थी हाय ! धिक्कार है एसे रुपयेवालेको जो पर दबी हुई रहती कब तक ? आखिरको एक दिन चौड़े आही गई पर सिर्फ धर्मकार्य छोडकर अनर्थ करनेपर उतारु इतनी बात कि किसनचंदकी लड़की चन्द्र हो जाता है । पाठक ! अबसे हम रतनचंद कलाका विवाह होनेवाला है। चन्द्रकला को भी फैय्याजीके नामसे लिखेंगे । और इस बातको सुनकर हंसी, खुशीके साथ , ला देखो लोढामलको ! जो अनर्थ कर२ दिन बिताने लगी। जब उसकी साथ पैसा कमाता है और अपनी उदरपूर्णा - करता है । न मालुम इसका भी क्या की सखी सहेलियां उससे हंसी करती तो हाल होगा ? जो जो हाल होगा पाठकों वह नीचे को मुख कर लेती और खुशीके को शनैः२ मालुम पड़ जायगा । अभी हम साथ रहती । पर उस विचारी भोली ऐसी बातोंमें अपने पाठकोंका समय नष्ट लड़की को इस बातकी क्या मालुम थी कि नहीं करना चाहते । हम अपने किस्सेका यह हंसी खुशी फिरना नहीं है, बल्कि रोना सिलसिला छेडते हैं। (शेषमग्रे।)
SR No.543085
Book TitleDigambar Jain 1915 Varsh 08 Ank 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kisandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1915
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Digambar Jain, & India
File Size19 MB
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