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________________ २६ समयमें पंडित सहारनसिंहजीने कार्यकुशलतासे अपने नामका सहारनपुर नामक नगर बसाया था । जिस प्रशंसनीय कार्य करनेसे ग्वालेरा नामक गाम आपको ईनाममें मिला (जो अभीतक आपके पास है । ) पश्चात् आपके पुत्र लाला गुलाबरायजीने देहली नगरमें आकर साहुकारी कोठी शाहजहां बादशाह के समय में खोली ( जो आजतक उनके और उनके पुत्र लाला महेरचन्दजीके नामसे चली आती है ) और इसी बादशाह के आप खजाञ्ची भी हो गये ( और अभीतक आपकी संतति इसी पदपर नियत होती चली आई है ।) श्री. लाला इशरीप्रसाद के पिताजी बड़े प्रतापी हुए, जिन्होंने हजारों रुपया सेठ कुचेके मन्दिरमें लगाया और धर्मसेवन करते रहे । इसी अवसर सन् १८५७में जब ग़दर हुवा तब आपने गवर्नमेन्टकी तन मन-धन से बहुत सहायता की और आपके पुत्र लाला अयोध्याप्रसादजी ने भी इस कार्य्यमें वीरता दिखाई । ग़दरकी शान्ति होने पर उर्दू बाज़ारका मन्दिर जो वरवा - दीमें आ चूका था जिसको जैसाका तैसा ही सरकार इंग्रेजी से स्थायी करा दिया, जो अभीतक बहुत शोभनीय हो रहा है सं. १९१० में ५०० जैनीओका संग ले - कर यात्रा की उस समय रेलगाडी नहीं थी । 1 >> सचित्र खास अंक. [वर्ष ८ सन् १८७७ में अपने दीर्घभ्राता लाला धर्मदासजीके परलोकगमनके पश्चात् कुटम्बका भार आप (लाला इशरीप्रसादजी ) पर आ गया और इसी सन् में अपने ग्रामादि जो ग़दरकी वीरताके कारण प्राप्त हुये थे उनको सम्मालते हुए आप खजाञ्ची गवर्नमेन्ट पद पर नियत हुए । १८६७ से ८२ तक अपनेही खर्चसे एक असपताल चलाते रहे और अनाथालय और दानशालाओं में द्रव्य प्रदान करनेमें अद्वितीय रहे । एक समय जो जिला रोहतक में हिन्दुमुसलमानोंमें तकरार होनेपर गवर्नमेन्टकी आज्ञानुसार आप शान्तिस्थापन करनेमें फलभूत हुए, जिससे आपका प्रभाव हिन्दुमुसलमानों में बहुत हुवा । सन् १९०३ में दरबार शहनशा ही में आप सरकार के नियमानुसार वर्तावमें आये और एक पदकभी आपको मिला और गत देहली दरबारमेंभी आपको आमंत्रण मिला था। आपने शिखरजी व गिरनारजीका संग बहुत से जैनयों के संगमे चलाया और पिताके अनुसार राज्य जींदस्थानमें बहुत समय से बन्द जैन मन्दिरको अपने यत्नसे खुलवाकर जारी किया । समय आर्यसमाजन जैनमतसमीक्षा पुस्तक द्वारा जिनमतको लाञ्छंन लगाया, उसी समय अपने मित्र बाबू प्यारेलालजी वकीलकी रायसे उनके अपराधका बदला सरकारसे दिलाया और अपने धर्म की अवनतिको रोका । यही वीर थे जिन्होंने १४ सन् १८७० में आपके पिता लाला शालिग्रामजीका परलोकवास हुआ और
SR No.543085
Book TitleDigambar Jain 1915 Varsh 08 Ank 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kisandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1915
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Digambar Jain, & India
File Size19 MB
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