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________________ २४ वर्ष व एम पट्टाभिषेक थयो हतो, जे पछी कारंजानी गादीना न्याय, व्याकरण, पुराण, सिद्धांत, पूजापाठ वगेरेनां अनेक ग्रंथो जे गांसडीओ बांधीने पडी रहेला हता तेने छुटा पाडी तेनुं सूचीपत्र तैयार करी ते सुव्यवस्थित रीते कबाटोमां गोठव्या छे जेथी जरुरी ग्रंथ तरत मळी आवे छे. गादीए बेठा पछी आ भट्टारकजीने हाथे अनेक स्थळोए प्रतिष्ठाओ थयेली छे, तेमां खामगामनी प्रतिष्ठा वखते तो भट्टारकजीए कंईक अतिशयो करी बताव्या हता. छेरलं चोमासुं कारंजामां करेलं हतुं, ज्यां रोज़ संस्कृत चंद्रप्रभुकाव्य वांची तेना अर्थ करी बतावता हता अने बबे कलाक सुधी शंकासमाधानो करता हता. न्याय, काव्य, अध्यात्म विषय उपरनी गमे ते शंकानुं समाधान एओ शास्त्रोना प्रमाण सहित करी शके छे, जे वखते एओ लब्धि >> सचित्र खास अंक. सार, क्षपणसार, प्रवचनसार, भावसार, त्रैलोक्यसार, आचारसार, गोमट्टसार, 'अष्टपाहुड, अष्टसहस्त्री, समयसार, आलापपद्धति वगेरे ग्रंथोनुं प्रमाण बतावी आपे छे जेथी एमणे पुष्कळ संस्कृत ग्रंथोनुं अध्ययन करेल स्पष्ट थाय छे. आवाज विद्वान भट्टारको होय, तोज तेथी जैन . धर्मनी उन्नति थई शके छे. आ भट्टारकजी दीर्घायुषी थई जैन कोमनी उन्नति माटे प्रयास करता रहो एज इच्छीए छीए. [वर्ष भी चमत्कार दिखाया था वहीं अजमेर की गद्दके भट्टारक श्री ललितकीर्तिजीका ग अश्विन कृष्ण६ को अजमेर में ७० वर्षकी वयो स्वर्गवास हो गया । आपका जन्म सं १९०१ में जयपुरमें हुआ था और गुर भट्टारक श्री रत्नभूषणजी थे । आपक पट्टाभिषेक १९२२ में हुआ था और संस्कृत मागधी के अच्छे जानकार थे । आपक चतुर्मास बहुत स्थानों पर होकर वह धर्मोपदेश होता था । ऐसे सत्पुरुषों दर्शननिमित्त मृत्यु समय अजमेर के श्रावक श्राविकाएं, अग्रवाल, ओसवाल महाका इत्यादि सर्व वैश्य कोमोंके स्त्रीपुरुषों आ थे और सबने कुछ न कुछ नियम ग्रह किया था । ऐसे सत्पुरुषोंका दर्शन उ स्वप्न मात्र रह गये । (४) स्व. भट्टारक श्री ललितकीर्तिजी : - . जिस गद्दी के भट्टारकोंने आगे बादशाहोंको (५) सिद्धक्षेत्र भी मन्दारगिरि-इ क्षेत्र से बारहवे तीर्थंकर श्री वासुपूज्यस्वामि मोक्ष पधारे हैं । भागलपुरकी पास मन्दार हील स्टेशनसे एक मील पर यह ती है । बहुत ग्रन्थों में वासुपूज्यकी मोक्षभूां चंपापुरी लिखी है तब उत्तरपुराण मन्दारगिरसपर लिखा है । यही चम्पापुर भी मन्दारंगिरसे केवल ३२ मील है भगवान के जन्मसमय इसका विस्तारे ४८ कोसका था इसलिये मन्दारगिर चम्पापुरी ही गर्भित समझा जा सकता है । इर पर्वत पर दो बहुत प्राचीन मन्दिर १००० वर्षसे उपरके बने हुए हैं, जिसका जीर्ण
SR No.543085
Book TitleDigambar Jain 1915 Varsh 08 Ank 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kisandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1915
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Digambar Jain, & India
File Size19 MB
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